लोकतंत्र की गुफा में

यह व्यंग्यात्मक कथा ‘गोवर्धन भालू और जंगल का चुनाव’ सत्ता, सेवा और लोकतंत्र के दिखावे पर तीखी टिप्पणी करती है। जंगल के चुनाव के बहाने यह कहानी बताती है कि आज राजनीति सेवा नहीं, स्वार्थ का अखाड़ा बन चुकी है जहाँ ईमानदार भालू भी गुफा में लौटने को विवश हैं।

व्यंग्य

उज्जवल कुमार सिंह

10/16/2025

जंगल के उस हिस्से में इस बार खूब गहमागहमी थी—पेड़ों की जड़ों से लेकर डालियों तक चर्चा का विषय एक ही था कि चुनाव आने वाले हैं और सत्ता की गंध पत्तों की नमी से भी ज्यादा घनी हो गई है। जिन पेड़ों पर अब तक बंदरों की उछल-कूद ही दिखाई देती थी, वहाँ अब भाषणों की आवाज़ें गूंजने लगी थीं—“हम लाएँगे विकास”, “हर पेड़ को बराबर धूप मिलेगी”, “कोई फल सड़ा नहीं रहेगा”, “जंगल रहेगा हरा-भरा, सबका साथ सबका विकास”—ऐसे कई नारे अब पत्तों की सरसराहट में खोकर फिर लौट आते थे जैसे जंगल स्वयं तय नहीं कर पा रहा हो कि ये हवा है या प्रचार का शोर। चुनाव आयोग के काम में लगे उल्लुओं ने घोषणा की थी कि जंगल के उत्तर क्षेत्र, जिसे कभी लकड़बग्घे की सत्ता का गढ़ माना जाता था, में इस बार मतदान होगा और जो भी चुना जाएगा, वह ‘संपूर्ण वन परिषद्’ का प्रतिनिधित्व करेगा। यह खबर सुनते ही तेंदुए ने अपने दाँत चमकाए, सियारों ने अपनी दुम फुलाई, और हाथियों ने जंगल की झाड़ियों में अपनी बैठक बुलाई। उधर कुत्ते, जो अब तक जंगल की सीमा के पहरेदार माने जाते थे, इस बार खुद ‘सुरक्षा और सेवा’ के नाम पर टिकट की जुगाड़ में लग गए थे। सबसे ज्यादा उत्साह तो लकड़बग्घों के बीच था, जिनका दावा था कि यह इलाका उनका पुराना गढ़ है और उनकी ‘सेवा भावना’ की जड़ें यहीं तक फैली हैं।

इसी बीच एक पुराना नाम, जो लगभग भुला दिया गया था, अचानक चर्चा में आने लगा—गोवर्धन भालू। बहुत साल पहले, जब लकड़बग्घे की सरकार थी और जंगल के हर पेड़ पर उसके समर्थकों की खरोंचें उकेरी जाती थीं, तब गोवर्धन ने उस अराजक माहौल से तंग आकर जंगल का वह हिस्सा छोड़ दिया था। कहते हैं, वह दक्षिण की ओर चला गया था, जहाँ पहाड़ों के नीचे शहद के झरने और आम के पेड़ थे। उसने वहाँ एक छोटी-सी गुफा बनाई और अपनी जीवनी लिखने में लग गया था—‘मैं और मेरा वन’। लेकिन अब जब चुनाव की हवा चली तो उसे अपने पुराने जंगल की याद आने लगी। उसने अपने मन में सोचा—“मैं क्यों छोड़ आया था इस जंगल को? यहाँ के पेड़ों ने मुझे पाला, यहाँ की नदियों ने मुझे जल दिया, और यहाँ के बांसों ने मुझे छाँव दी। मैं तो पलायन कर गया, पर सेवा तो वहीं रह गई थी। अब लौटना चाहिए। लेकिन लौटकर करूँगा क्या? जंगल में सेवा करने का अधिकार तो अब केवल उन्हीं को है जिन्हें चुनाव जीतने का मौका मिले। बिना टिकट के सेवा करना अब शक के दायरे में आता है।”

गोवर्धन ने अपनी गुफा से निकलकर पुरानी दिशा में कदम बढ़ाए। उसके लौटने की खबर से जंगल में हलचल मच गई। जो जानवर कभी उसके साथ मधु की चुस्की लेते थे, वे अब पत्रकार बन चुके थे और उसकी वापसी को “पुराने सेवक की वापसी” या “जंगल का खोया नायक लौट आया” जैसे शीर्षक देने लगे। मगर गोवर्धन जानता था कि यह जंगल अब पहले वाला नहीं रहा। अब यहाँ सेवा भाव से ज्यादा ‘सेवा दल’ हैं और सच्चाई से ज्यादा ‘रणनीति’ की कीमत है। उसने अपने पुराने मित्र सियारदास को बुलाया, जो अब ‘जंगल जनपथ पार्टी’ का प्रवक्ता था। सियारदास ने भौंक जैसी आवाज़ में कहा—“गोवर्धन भालू जी, आपका स्वागत है, लेकिन समय बदल गया है। अब सेवा का मतलब चुनाव जीतना है और चुनाव जीतने का मतलब है समर्थन जुटाना, गठबंधन करना, और सबसे बढ़कर ‘छवि बनाना’। आप बूढ़े हो चुके हैं, मंच पर आपकी गुर्राहट में अब वह जोश नहीं जो जनता को खींच सके। हाँ, अगर आप अपनी बेटी को आगे लाएँ, तो बात बन सकती है। जनता नई शक्लों पर ज्यादा भरोसा करती है, पुरानों पर अब आरोप लगते हैं कि वे केवल ‘शहद खाते रहे और बांस की छाँव में सोते रहे।’” गोवर्धन ने गहरी साँस ली। उसे अपनी बेटी ‘गौरी भालू’ की याद आई—शहद जैसी मीठी आवाज़ और चाँद जैसी गोल-मटोल शक्ल वाली वह बेटी जो अब तक जंगल विश्वविद्यालय में समाज सेवा का पाठ पढ़ रही थी। पिता ने सोचा—“अगर सेवा करनी है तो वही करेगी। मेरी सेवा भावना उसमें जिंदा है।” उसने गौरी को बुलाया और कहा—“बेटी, अब तुम्हारा समय आ गया है। जंगल को तुम्हारी जरूरत है। मैं तो बूढ़ा हो गया, लेकिन तू मेरी सेवा भावना की मशाल लेकर आगे बढ़।” गौरी पहले तो हिचकीचाई—“पिताजी, मुझे राजनीति पसंद नहीं। वहाँ तो सब लड़ते हैं, छल करते हैं।” मगर पिता ने उसे समझाया—“सेवा का रास्ता कभी आसान नहीं होता। अगर तू सच्ची है, तो जंगल खुद तेरे साथ खड़ा होगा।”

गौरी ने जब ‘जंगल जनपथ पार्टी’ से टिकट लिया, तो पूरा जंगल गूँज उठा। लकड़बग्घे खिसियाए, तेंदुआ नाराज़ हुआ, कुत्ते भौंके—“ये कौन आ गई नई उम्मीदवार? अभी तो गुफा में रहती थी, अब जनता की बात करेगी?” मगर पार्टी ने ऐलान कर दिया—“हम नई पीढ़ी को आगे ला रहे हैं। यही परिवर्तन की लहर है।” और फिर पोस्टरों की बाढ़ आ गई—‘गौरी भालू—सेवा की नई कहानी’, ‘शहद से भी मीठा विकास’। जंगल के पेड़ों पर, तालाबों के किनारों पर, यहाँ तक कि मधुमक्खियों के छत्तों पर भी गौरी के नाम की पुकार थी। लेकिन राजनीति का जंगल कोई परियों की कहानी नहीं होता। चुनाव के मैदान में अब असली खेल शुरू हुआ। लकड़बग्घों ने प्रचार किया—“भालू परिवार ने पहले भी जंगल से पलायन किया था, अब लौटकर जंगल को फिर धोखा देगा।” तेंदुए ने कहा—“यह चुनाव नहीं, गुफाओं की साजिश है।” और बिल्ली ने अपनी नाजुक आवाज़ में मीठा जहर घोला—“हम महिलाओं को प्रतिनिधित्व चाहिए, लेकिन किसी की बेटी बनकर नहीं, अपने दम पर।” जंगल की जनता यह सब सुनती रही। उसे कभी लगता, शायद गौरी सही है, तो कभी लगता कि सब एक जैसे हैं। इस बीच गोवर्धन ने अपने पुराने संबंधों को सक्रिय किया। उसने हाथियों को याद दिलाया कि कैसे उसने कभी उनके बच्चों को नदी पार करवाई थी, उसने बंदरों को बताया कि उसने ही उनके लिए केले के पेड़ लगाए थे। सब मुस्कराए, लेकिन बोले—“अब वक्त बदल गया है भालू जी, अब वोट नीति पर पड़ता है, यादों पर नहीं।”

गौरी ने अपने अभियान की शुरुआत की। वह हर झाड़ी, हर पेड़, हर गुफा में गई और बोली—“मैं आपकी बेटी हूँ, आपकी बहन हूँ, मुझे सेवा का अवसर दीजिए।” मगर जंगल की जनता ने भी अब चालाकी सीख ली थी। कुछ बंदरों ने कहा—“पहले ये बताओ, हमें मुफ्त फल मिलेंगे या नहीं?” कुछ खरगोश बोले—“क्या बिल्ली का कर लगाया जाएगा?” कुछ सियारों ने पूछा—“क्या लकड़बग्घों की जमीन वापस ली जाएगी?” गौरी ने मुस्कराकर कहा—“हम सबका साथ और सबका विकास चाहती हूँ।” लेकिन उसकी मुस्कान के पीछे अनुभव की कमी थी, और जनता अब मुस्कान नहीं, प्रबंधन देखना चाहती थी। इसी बीच चुनाव आयोग के उल्लू परेशान थे। हर रात शिकायतें आतीं—कहीं तेंदुए ने पेड़ों की डाल पर पोस्टर फाड़ दिए, कहीं कुत्तों ने रात में भाषणों की भौंक लगाई, कहीं सियारों ने ‘वोट फॉर सियारदास’ का नारा पत्थरों पर लिख दिया। जंगल की रातें अब शांत नहीं रहीं, वे जनसभाओं की रोशनी और प्रचार के शोर से दग्ध थीं। नदी के किनारे बैठे मगरमच्छों ने कहा—“ये लोकतंत्र नहीं, प्रदर्शन है।” और तोते, जो अब पत्रकार कहलाते थे, रोज़ नई खबरें उड़ाते—“गौरी भालू ने कहा—लकड़बग्घा राज खत्म होगा”, “तेंदुए ने किया बड़ा खुलासा—भालू परिवार के पास गुफाओं की संपत्ति है।” गोवर्धन यह सब देखकर निराश हो गया। उसे समझ आया कि जंगल की राजनीति अब सेवा की नहीं, ‘सेवा पाने की’ प्रतियोगिता है। हर जानवर अपने हित में ही सोच रहा है। मगर अब वह पीछे नहीं हट सकता था, क्योंकि चुनाव उसकी बेटी का ‘कर्तव्य’ बन चुका था। उसने अपनी बूढ़ी दहाड़ में कहा—“अगर यह जंगल सच में लोकतंत्र है, तो जनता मेरे त्याग को याद रखेगी।” मगर जनता के पास याद रखने का वक्त नहीं था। चुनावी दिन आया। नदी किनारे मतदान केंद्र बनाए गए। हाथियों ने लंबी कतारें बनाई, बंदरों ने डालियों से झूलकर वोट डाले, और लकड़बग्घे—वे हमेशा की तरह हँसते हुए लाइन तोड़कर अंदर घुस गए।

शाम को जब परिणाम आए, तो जंगल फिर हँस पड़ा। जीत तेंदुए की पार्टी की हुई थी। गौरी भालू हार गई थी—बहुत कम अंतर से, लेकिन हार तो हार होती है। तेंदुए ने अपने पंजे उठाकर कहा—“जनता ने विकास पर मुहर लगाई है।” और सियारदास ने टीवी कैमरे की ओर देखकर कहा—“भालू परिवार अब इतिहास है, भविष्य हमारा है।” गौरी चुप थी। उसने अपने पिता की ओर देखा, जिनकी आँखों में न कोई आँसू थे न गुस्सा—बस थकान थी। उसने कहा—“पिताजी, सेवा तो हम करना चाहते थे, पर जनता ने हमें चुना नहीं।” गोवर्धन मुस्कराया—“बेटी, सेवा जीतने से नहीं, जीने से होती है। मैं भी यही भूल गया था। जो बिना सत्ता के सेवा कर सके, वही सच्चा सेवक है। बाकी तो सब जंगल की राजनीति के खिलाड़ी हैं।” और फिर उसने अपनी बेटी का हाथ थामकर गुफा की ओर चलना शुरू किया। पीछे से सियारों की हँसी, तेंदुए के भाषण और कुत्तों की भौंक मिलकर ऐसा शोर पैदा कर रहे थे, जैसे जंगल खुद अपने लोकतंत्र का मज़ाक उड़ा रहा हो। रास्ते में गोवर्धन ने सोचा—“शायद मैं फिर पलायन कर रहा हूँ, लेकिन इस बार शरीर नहीं, विचार पलायन कर रहा है। सेवा अब भाषणों में कैद है, ईमानदारी अब घोषणापत्र का वादा है।” उसने आकाश की ओर देखा—पेड़ों के बीच चाँद मुस्करा रहा था, जैसे जानता हो कि इस जंगल में जो सच बोलता है, वही हारता है। जंगल फिर अपने पुराने स्वरूप में लौट आया। पेड़ वैसे ही हरे थे, पत्ते वैसे ही सरसराते थे, मगर हवा में एक नई गंध थी—समझौते की। और भालू गोवर्धन, जिसने सेवा के नाम पर बेटी को राजनीति के अखाड़े में उतारा था, अब गुफा के बाहर बैठा सोचता था—“कितना अजीब है यह जंगल—यहाँ चुनाव होते हैं पर परिवर्तन नहीं, यहाँ नेता बदलते हैं पर नीयत नहीं।”

धीरे-धीरे बारिश शुरू हुई। पेड़ों की जड़ों के पास कीचड़ जमा हो गया, और उसी में पड़े चुनावी पोस्टर गलने लगे। गौरी ने कहा—“पिताजी, ये गलते हुए पोस्टर जैसे हमारे सपनों के अवशेष हैं।” गोवर्धन ने उत्तर दिया—“नहीं बेटी, ये हर युग की सच्चाई हैं—हर बार गलते हैं, फिर छपते हैं, फिर गले लगते हैं, फिर गिरते हैं। यही लोकतंत्र का चक्र है, जो जंगल में भी चलता है।” और इस तरह जंगल का चुनाव समाप्त हुआ—नतीजे आए, भाषण दिए गए, माला पहनाई गई, मगर जंगल वही रहा—जहाँ हर प्राणी अपने स्वार्थ में समर्पित था और सेवा अब एक प्रचार वाक्य बन चुकी थी। शायद यही व्यंग्य है उस व्यवस्था का, जहाँ भालू जैसे सेवक भी सोचने लगते हैं कि बिना जीत के सेवा अधूरी है, और जनता—वह हर बार वही गलती दोहराती है, जैसे कोई गधा बारिश में छतरी खरीदना भूल जाए और फिर भी खुद को समझदार समझे।

जंगल अब फिर शांत है, पर वह शांति भीतर से खोखली है। पेड़ों की पत्तियाँ फिर से हरी हैं, लेकिन उन पर चुनावी धूल अब भी जमी है। भालू गोवर्धन की गुफा अब ‘सेवा केंद्र’ नहीं रही, वह आत्मचिंतन की जगह बन चुकी है — एक ऐसी जगह जहाँ शब्द नहीं, मौन बोलता है। गौरी कभी-कभी वहाँ आती है, अपने पिता से पूछती है — “क्या लोकतंत्र सच में जनता के लिए है, पिताजी?” गोवर्धन बस मुस्करा देता है और कहता है — “लोकतंत्र जंगल की तरह है, बेटी — सुंदर तभी लगता है जब दूर से देखा जाए। पास जाने पर दिखता है कि हर पेड़ अपनी धूप के लिए लड़ रहा है।”

वह आगे कहता है — “सत्ता की इस गुफा में जो जाता है, वह लौटकर वैसा नहीं रहता। कुछ अपने ईमान को खो देता है, कुछ अपनी मासूमियत को, और कुछ अपनी सेवा भावना को। पर फिर भी यह गुफा जरूरी है, क्योंकि बिना इसके जंगल बिखर जाएगा। सवाल यह नहीं कि कौन जीता, सवाल यह है कि कौन भीतर जाकर भी खुद को बचा पाया।” गौरी अब समझ चुकी थी कि पिता ने जो कहा था, वह सेवा की असली परिभाषा थी — बिना माला, बिना मंच, बिना वोट की आकांक्षा के जो दूसरों के लिए कुछ कर सके, वही सच्चा सेवक है। जंगल का लोकतंत्र अब उसके लिए मंच नहीं, एक दर्पण बन गया था — जहाँ हर चेहरे के पीछे एक मुखौटा और हर मुस्कान के पीछे एक सौदा छिपा था। बारिश के बाद की मिट्टी में गलते हुए पोस्टर अब जंगल की धरती में मिल चुके थे। कहीं-कहीं से पुराने नारों के अक्षर मिट चुके थे — “सबका साथ” में से “साथ” धुल गया था, “विकास” में से “विक” बचा था। गोवर्धन ने कहा — “देख बेटी, यही राजनीति का यथार्थ है — शब्द बदलते रहते हैं, भाव खो जाते हैं, पर दिखावा कायम रहता है।” उसने आकाश की ओर देखा, जहाँ अब भी चाँद मुस्करा रहा था — वही चाँद जिसने हर चुनाव देखा, हर हार-जीत की कहानी सुनी। वह जानता था कि लोकतंत्र की गुफा में अब भी कई गोवर्धन भालू बैठे हैं, जो सेवा करना चाहते हैं, मगर हर बार यह सोचकर पीछे हट जाते हैं कि “बिना चुनाव जीते कैसे सेवा करें?” और शायद यही इस व्यंग्य की अंतिम सीख है — कि सेवा और सत्ता दो अलग पथ हैं; जो इन्हें मिलाने की कोशिश करता है, वह अंततः जंगल की गुफा में भटक जाता है। लोकतंत्र चलता तो है, पर अपनी परछाईं से डरते हुए — जैसे जंगल में हर जानवर अपने ही कदमों की आहट से काँपता है।