वर्क कम लोड ज्यादा

यह व्यंग्यात्मक लेख एक लंबी कहानी का पात्र-परिचय मात्र है, जिसमें विभागीय जीवन के पाँच विशिष्ट चरित्र—शर्मा, वर्मा, मिश्रा, शुक्ला और सिंह साहब—के माध्यम से काम कम और बात ज़्यादा करने की प्रवृत्ति पर करारा व्यंग्य किया गया है। यह सिर्फ शुरुआत है, असली कथा अभी बाकी है। वर्क कम लोड ज्यादा

व्यंग्य

उज्जवल कुमार सिंह

6/25/2025

शर्मा जी विभाग के सबसे वरिष्ठ लेकिन सबसे ‘व्यस्तनुमा’ कर्मचारी हैं। उनका कद और अनुभव जितना ऊँचा है, उतना ही बड़ा है उनका भ्रमजाल — कि वे दिन-रात अनथक परिश्रम कर रहे हैं। उनके टेबल पर 16 मोटी-मोटी फाइलें साल भर से जस की तस पड़ी हैं, जैसे सरकारी निष्क्रियता की मूर्त प्रतीक हों। इन फाइलों की धूल इतनी सघन है कि यदि कोई नया कर्मचारी उसे हटाने लगे तो मानो विभाग का इतिहास सामने आ जाए। शर्मा जी की एक खास शैली है — जब भी कोई उन्हें किसी फाइल, प्रोजेक्ट या जवाब के लिए पुकारता है, वे गर्दन ऊपर उठाते हुए गहरी साँस लेते हैं, चश्मा आँखों पर कसते हैं और ऐसा मुखमंडल बना लेते हैं मानो राष्ट्र का वार्षिक आर्थिक सर्वेक्षण वे अकेले ही तैयार कर रहे हों। उनका चेहरा उस क्षण इतना गंभीर हो जाता है कि सामने वाला अपने सवाल पर खुद ही शर्मिंदा हो जाता है।

"अरे भाई! अभी तो बहुत लोड में हूँ," — वे गले पर हाथ फेरते हुए कहते हैं — "तीन प्रपोज़ल भेजने हैं, दो ई-मेल ड्राफ्ट करने हैं, ऊपर से RTI का जवाब तैयार करना है। और देखो न, अभी तक संजय ने पुराने नोट्स भेजे ही नहीं!"

लेकिन यह व्यस्तता सिर्फ जुबानी है। वास्तव में उनकी कंप्यूटर स्क्रीन पर उस समय ‘क्रिकबज’ खुला होता है और वे रोहित शर्मा की स्ट्राइक रेट पर अत्यंत गहन चिंतन कर रहे होते हैं, जैसे स्ट्रैटजिक टाइम आउट में वे ही कप्तान हों। उनका माउस सिर्फ स्कोर अपडेट करता है, और कीबोर्ड केवल चैट पर हल्की-फुल्की टिप्पणियों के लिए प्रयोग में आता है। शर्मा जी का दर्शन स्पष्ट है — ‘काम करना महत्वपूर्ण नहीं, काम करते दिखना महत्वपूर्ण है।’ उनके पास एक चमकदार फोल्डर हमेशा टेबल पर खुला होता है जिसमें ढेर सारे रंगीन पोस्ट-इट्स लगे होते हैं, ताकि किसी भी समय कोई झाँक कर देखे तो भ्रम बना रहे कि “बहुत कुछ चल रहा है”। उनका फोन हमेशा व्यस्त रहता है — कभी पत्नी से सब्ज़ी की लिस्ट पर बहस, तो कभी बैंक कॉलर से 'नमस्ते सर' पर असंतोष — लेकिन आस-पास वालों को यही सुनाई देता है: “हाँ जी, मीटिंग में हूँ!”

शर्मा जी के जीवन में ‘Efficiency’ का स्थान 'Impression' ने ले लिया है। उनके लिए विभागीय सफलता का मानदंड काम का निपटान नहीं, बल्कि मीटिंग्स में दो-तीन भारी-भरकम शब्द बोलना और चेहरे पर सदा 'थकान' का भाव रखना है। ऐसे में शर्मा जी वास्तव में एक प्रतीक हैं — उस सिस्टम के, जिसमें ‘लोअर बर्थ पर लेटे हुए’ लोग भी ‘ओवरलोड’ में गिने जाते हैं। उनकी कार्यशैली में परिश्रम की मात्रा नहीं, प्रदर्शन की गुणवत्ता है। वे नायक नहीं, ‘वर्क सिंड्रोम’ के अभिन्न ब्रांड एंबेसडर हैं। क्योंकि शर्मा जी काम नहीं करते, वे 'काम का माहौल' बनाते हैं।

वर्मा जी विभाग के वे बहुप्रतिष्ठित सदस्य हैं जिन्हें सभी स्नेह और व्यंग्य में ‘Zoom Baba’ कहकर बुलाते हैं। ऐसा नहीं कि वे तकनीक-प्रेमी हैं—बल्कि वे तकनीक के माध्यम से कर्म से दूरी बनाए रखने की एक विलक्षण विधा में निपुण हैं। उनकी दिनचर्या सुबह की चाय से नहीं, मीटिंग लिंक भेजने से शुरू होती है। वे मानते हैं कि जब तक कम से कम चार लिंक न भेजे जाएँ, दिन का शुभारंभ नहीं होता। वर्मा जी की कार्यशैली का आधार है—‘चर्चा करो, काम अपने आप टल जाएगा।’ वे इतने मीटिंगप्रेमी हैं कि एक बार तो वे छुट्टी पर थे और घर पर पकोड़े तल रहे थे, लेकिन फिर भी मीटिंग में शामिल होना उन्होंने अपना कर्म, धर्म और कर्तव्य मान लिया। भले ही वो मीटिंग ‘उद्यान विभाग के जल संरक्षण’ पर थी, जबकि वर्मा जी ‘वित्त शाखा’ में कार्यरत हैं। लेकिन चर्चा में भागीदारी होनी चाहिए—यह उनका नारा है।

वर्मा जी की मीटिंग शैली की तीन विशिष्ट कलाएँ विभाग में प्रसिद्ध हैं। पहली कला है मीटिंग लिंक भेजना—वे लिंक इतनी बार फॉरवर्ड करते हैं कि विभाग के हर व्हाट्सएप ग्रुप में रोज़ाना दस अनावश्यक लिंक उनकी कृपा से पहुँचा करते हैं। दूसरी कला है पासवर्ड भूल जाना—हर मीटिंग की शुरुआत उनके द्वारा पूछे गए एक अमर वाक्य से होती है: “अरे यार, इस लिंक का पासवर्ड क्या था?”, और इस सरल वाक्य ने विभाग के कीमती आधे घंटे नियमित रूप से बर्बाद किए हैं, जिसके लिए उन्हें 'देर कराने का स्वर्ण पदक' देना चाहिए। तीसरी कला है कैमरा बंद कर सो जाना—मीटिंग शुरू होते ही वर्मा जी 'ऑडियो ऑफ' और 'कैमरा ऑफ' हो जाते हैं, और उनकी अनुपस्थिति इतनी नियमित और गुप्त होती है कि एक सहकर्मी ने टिप्पणी भी कर दी: “वर्मा जी की सक्रियता उतनी ही अदृश्य है जितनी निष्क्रियता स्पष्ट।”

उनका कार्य कंप्यूटर में सहेजा गया है, मगर उसमें भी ‘वर्क फ़ोल्डर’ के अंदर केवल एक Excel फ़ाइल है — जिसका नाम है “Pending_List_2019.xlsx”। इस फ़ाइल का गौरव यह है कि इसे उन्होंने हर मीटिंग में स्क्रीनशेयर किया है, लेकिन कभी भी एक भी सेल अपडेट नहीं किया। "देखिए, मैं तो बस कहता हूँ कि काम तभी अच्छा होता है जब लोग साथ बैठें और चर्चा करें," — वे बड़े विश्वास से कहते हैं, जैसे मीटिंग ही देश की GDP में योगदान दे रही हो। उनका ब्रह्मवाक्य है: “काम हो या न हो, मीटिंग होनी चाहिए — क्योंकि मीटिंग ही कर्म का विस्तार है।” वास्तव में, वर्मा जी आधुनिक दफ्तर संस्कृति की उस प्रजाति के प्रतिनिधि हैं जो मीटिंग को ही मिशन मानते हैं, लेकिन जिनका योगदान PowerPoint की स्लाइड्स में तो होता है, विभागीय फाइलों में नहीं। वे विभाग के ‘विचार के वाहक’ हैं — जहाँ कार्य नहीं होता, पर विमर्श निरंतर चलता रहता है। क्योंकि वर्मा जी के लिए काम की सार्थकता उसमें नहीं कि क्या किया, बल्कि इसमें है कि कितनी बार उस पर बात की गई।

मिश्रा जी विभाग के उन अनुभवी लेकिन ‘सदैव वाचाल’ कर्मचारियों में आते हैं, जिनकी मौजूदगी से ज़्यादा उनकी बातें विभाग में गूंजती हैं। उनका व्यक्तित्व विशुद्ध रूप से वाणी-प्रधान है। काम भले ही कंप्यूटर स्क्रीन पर न दिखे, लेकिन उनके संवादों में विभागीय इतिहास से लेकर वैश्विक नीति तक सब कुछ मौजूद रहता है। मिश्रा जी के लिए कार्यालय न केवल काम करने की जगह है, बल्कि एक सामाजिक मंच है जहाँ वे अपने अनुभवों का महाकाव्य सुनाते हैं — बिना किसी अनुरोध के। वे अक्सर कॉफी मशीन के पास खड़े मिलते हैं, एक हाथ में कप और दूसरे में पुरानी यादों की गठरी। वहाँ से गुजरने वाला कोई भी कर्मचारी बच नहीं सकता। वे उसे रोकते हैं और कहना शुरू कर देते हैं: "बेटा, जब मैं पटना में था, तब एक ही दिन में पचास फाइलें निपटा देता था। यहाँ तो सब आरामपसंद हो गए हैं। अब तो बस Ctrl+C और Ctrl+V चल रहा है। असली मेहनत क्या होती है, तुम लोगों को क्या पता?"

उनकी बातों में ‘पटना’ एक पौराणिक काल है, जहाँ वे खुद एक दस्तावेज़ योद्धा थे और फाइलें हवा में उड़ती थीं। लेकिन वर्तमान में उनका फोल्डर महीनों से खाली पड़ा है, और उनका कीबोर्ड कब का धूल से ढँक चुका है। वे टाइपिंग करने से परहेज़ करते हैं — "कंप्यूटर आँखें खराब करता है," कहकर वे अपनी आँखों के चश्मे को पोंछते हैं, जो दस साल से एक ही नंबर पर है। उनका मॉनीटर भी उनके स्वभाव का प्रतिबिंब है — पुराना, धीमा और अक्सर नीली स्क्रीन पर ठहर जाने वाला। सहकर्मी मज़ाक में कहते हैं, "मिश्रा जी का कंप्यूटर भी उन्हीं की तरह है — समय लेकर सोचता है, फिर भी कोई फ़ाइल नहीं खोलता।" और जब कभी ‘वर्क’ शब्द स्क्रीन पर आ जाता है, तो मॉनीटर ऐसा झनझना जाता है जैसे रिटायरमेंट की घंटी बज गई हो।

मिश्रा जी के लिए कार्य संस्कृति का मतलब है—कर्मचारियों को यह बताना कि पहले समय में कैसे बिना इंटरनेट, बिना टाइपराइटर और बिना बिजली के भी लोग काम कर लेते थे। उन्होंने एक बार कहा भी, "तुम लोग गूगल से काम करते हो, हम लोग दिमाग से करते थे!" जब कोई नया कर्मचारी उत्साह से कहता है, "सर, ये प्रेज़ेंटेशन मैंने PowerPoint में बनाया है," तो मिश्रा जी गर्व से कहते हैं, "हमारे ज़माने में हम हाथ से चार्ट बनाते थे, स्केल से रेखाएँ खींचते थे। वो असली काम था। ये तो सब दिखावा है।" असल में मिश्रा जी के लिए ‘काम’ एक पुरानी किताब की तरह है — जिसे वो बार-बार खोलते हैं, मगर पढ़ते नहीं। उनका आत्मविश्वास उनकी बातों में झलकता है, और आलस्य उनके कंप्यूटर की स्क्रीन पर। वे विभाग की वाचिक परंपरा के संरक्षक हैं — जहाँ काम भले ठहरा हो, पर संवाद कभी थमता नहीं। क्योंकि मिश्रा जी के लिए ‘वर्कलोड’ नहीं, ‘वर्बलोड’ ही असली ज़िम्मेदारी है।

शुक्ला जी विभाग के उन सौम्य और संतुलित व्यक्तित्वों में गिने जाते हैं जो 'balance of life and nap' को जीवन का मूलमंत्र मानते हैं। उनका यह मानना है कि "कुर्सी पर बैठते ही अगर झपकी न आये तो समझो कर्म का अपमान हुआ।" वे कार्यक्षेत्र को युद्धभूमि नहीं, ध्यानस्थ योगभूमि मानते हैं — जहाँ शरीर कुर्सी पर हो और आत्मा विश्राम की गोद में। उनका टेबल देखकर कोई भी भ्रमित हो सकता है कि यहाँ कोई अतिव्यस्त अधिकारी कार्यरत है। फाइलें उनके सामने इस तरह से सजी होती हैं मानो दशहरा मेले में रावण की तलवारें हों — ऊँची, चमकदार और स्पर्श-मात्र से भयभीत कर देने वाली। लेकिन अगर आप उन फाइलों को खोलें तो आपको आखिरी अपडेट की तारीख में "2018" दिखाई देगी, और भीतर नोटिंग की जगह होगा केवल एक पोस्ट-इट: "जल्द शुरू करेंगे।"

शुक्ला जी की दिनचर्या सुस्पष्ट है। सुबह दफ्तर आते ही वे सबसे पहले कुर्सी की पीठ को समायोजित करते हैं, गर्दन को पीछे झुकाते हैं और पाँच मिनट का ‘ऑफ़िस मेडिटेशन’ प्रारंभ करते हैं, जो अक्सर 45 मिनट तक खिंच जाता है। कोई पूछे कि कार्य की गति कैसी है, तो वे आँखें मसलते हुए कहते हैं:
"भगवान ने चाहा तो आज दोपहर तक सपना पूरा कर लेंगे… मेरा मतलब, काम पूरा कर लेंगे!" उनका यह उत्तर विभाग में "शुक्ला सूत्र" के नाम से प्रसिद्ध है। वे HR विभाग से सबसे अधिक बार “revised deadline” माँगने वाले अधिकारी हैं। उनका तर्क होता है — "काम जल्दी करने से गुणवत्ता गिरती है। हमें गुणवत्ता चाहिए, जल्दबाज़ी नहीं।"

शुक्ला जी की टेबल पर एक छोटा तकिया और एक चाय का कप स्थायी रूप से रहता है। जब उनसे कोई नया अधिकारी समयबद्ध रिपोर्ट माँगता है, तो वे शांत मुस्कान के साथ उत्तर देते हैं:
"जी, आपने माँगा है, यह अपने-आप में पर्याप्त है। अब बस समय और ऊर्जा का सही संतुलन बनते ही कार्य जन्म ले लेगा।" दरअसल, शुक्ला जी कार्य को किसी तपस्या की तरह नहीं, वरदान की तरह प्राप्त करते हैं — जिसे जितना टाल सको, उतना ही फलित होता है। वे मानते हैं कि ‘देर से किया गया काम, आत्मा से किया गया काम होता है।’ और जब फाइलें पूछती हैं — "अब क्या होगा हमारा?" तो शुक्ला जी अपनी झपकी में मुस्कराते हैं, जैसे कह रहे हों — "धैर्य रखो, मैं जाग जाऊँ तो तुम भी जाग जाओगी।" क्योंकि शुक्ला जी के लिए कार्यस्थल आरामगृह है — जहाँ नींद, विचार और उम्मीदें एक ही कुर्सी पर बैठती हैं, और फाइलें भी।

सिंह साहब विभाग के स्वयंभू ‘उत्साहक वचन मंत्रालय’ के निर्विरोध मंत्री हैं। उनके पास पद कोई भी हो, लेकिन भाषण का अधिकार जन्मसिद्ध है। हर दिन सुबह ठीक 10:15 पर वे ऑफिस में एक ऊर्जा के साथ प्रवेश करते हैं, जैसे किसी युद्धभूमि में सैनिक उतरे हों। 10:17 पर वे अनिवार्य रूप से अपनी टीम के सामने घोषणा करते हैं—"टीम! हमें इस बार कोई कोना नहीं छोड़ना है। ये सिर्फ़ मिशन नहीं, आंदोलन है!" यह घोषणा इतनी बार हो चुकी है कि विभाग के नये कर्मचारी इसे ‘राष्ट्रीय गान’ की तरह रट चुके हैं। लेकिन सिंह साहब की अनूठी विशेषता यह है कि वे 10:20 पर अपनी कुर्सी पर जम जाते हैं और उसी 'कोना' को सबसे पहले छोड़ देते हैं, जिसकी बात वे अभी कर चुके होते हैं। फिर शुरू होता है उनका असली ‘डिजिटल उत्साह चक्र’—व्हाट्सएप खोलना, 'गुड मॉर्निंग' GIF भेजना, प्रेरणादायक उद्धरण साझा करना और "आज का मंत्र: सकारात्मक रहो" जैसा स्टेटस डालना।

उनका मानना है कि काम करना द्वितीयक है, प्राथमिक है काम करवाने की बात करना। वे मीटिंग्स में प्रमुख वक्ता होते हैं, पर एजेंडा से उनका संबंध वही होता है जो समुद्र से ऊँट का—मौजूद तो हैं, लेकिन ज़रूरत नहीं है। जब भी कोई पूछता है—"सर, इस कार्य को कौन करेगा?" वे तत्काल कहते हैं—"महत्वपूर्ण सवाल है। इस पर हम अगली मीटिंग में चर्चा करेंगे।" उनके लिए ‘डेडलाइन’ का अर्थ है: “किसी और के लिए चिंता करने की तारीख।” खुद पर कभी कोई दबाव नहीं लेते, लेकिन दूसरों को इतनी प्रेरणा देते हैं कि वे खुद ही थक जाएँ। वे अक्सर कहते हैं: "टीमवर्क में ताकत है। हमें मिलकर काम बाँटना है, ताकि कोई थक न जाए — विशेष रूप से मैं!"

उनकी वाणी में ऐसी मिठास होती है कि कर्मचारी उनकी बातों में खो जाते हैं—और जब होश आता है, तब समझते हैं कि काम वही कर रहे हैं, लेकिन सिंह साहब के नाम से। उनका हस्ताक्षर विभाग की रिपोर्ट में एकमात्र ऐसा नाम होता है जो कभी पन्ने पलटे बिना अंतिम पृष्ठ तक पहुँचता है। सिंह साहब के बारे में कहा जाता है कि "वे किसी भी ठहराव को भाषण से गति में बदल सकते हैं, फिर चाहे गति सिर्फ़ तालियों की ही क्यों न हो।" उनका असली कौशल यह है कि वे काम से दूर रहकर भी हर कार्य में उपस्थित दिखते हैं — जैसे बादल बिना बरसे भी आसमान में छाए रहते हैं। क्योंकि सिंह साहब के लिए नेतृत्व का अर्थ है: सामने खड़े रहो, बोलते रहो और काम... किसी और से करवाते रहो।