सियारदास का सिंहासन
'सियारदास का सिंहासन' एक व्यंग्यात्मक रूपक कथा है, जिसमें जंगल के नए राजा बने सियारदास की अहंकारी प्रवृत्ति, चाटुकार सियारों की चहचहाहट और मेहनती घोड़ों के प्रति उसकी कुंठा को केंद्र में रखकर सत्ता, चापलूसी, और श्रम के मूल्य पर तीखा व्यंग्य किया गया है। यह कथा मानव समाज की राजनीतिक विडंबनाओं का प्रतीक है।
व्यंग्य
उज्जवल कुमार सिंह
8/7/2025
जंगल में इन दिनों एक अजीब सी शांति थी। यह शांति वैसी नहीं थी जैसी वर्षा के बाद झाड़ियों में भीगी चुप्पी या किसी हिंसक बाघ की घात से पहले का मौन होता है; यह शांति वैसी थी, जो भय, संकोच और व्यवस्था की जकड़न से उपजी हो। न पंछी चहचहा रहे थे, न बंदर किलकारियाँ मार रहे थे और न ही शेरों की दहाड़ की कोई गूंज सुनाई दे रही थी। जंगल के भीतर की आवाज़ें जैसे कहीं दबा दी गई हों—या जानबूझकर रोक दी गई हों। और इसका कारण कोई अकाल या आपदा नहीं, बल्कि सियारदास की ताजपोशी थी। यह सियारदास कोई सामान्य सियार नहीं था। वह बचपन से ही “हुंआ-हुंआ” की एक विशेष शैली में चिल्लाया करता था, जिसमें इतनी आत्मविश्वासपूर्ण लय होती कि खुद को सुनकर भी उसके साथी सियार अचंभित हो जाते। लेकिन यह “हुंआ-हुंआ” सिर्फ एक ध्वनि नहीं थी, यह समय के साथ एक घोषवाक्य बन चुका था — एक प्रकार का जंगल का “राजध्वनि”। और इस 'राजध्वनि' का नाम भी रखा गया — “हुंआतंत्र”, जिसके अनुसार जंगल में शासन अब चिल्लाहट की मात्रा और उसके प्रभाव पर आधारित होगा, न कि किसी योग्यता, श्रम या समझ पर। जंगलवासियों के लिए यह एक नया प्रयोग था। शेर बूढ़ा हो चुका था, हाथी राजनीति से रिटायर था, लोमड़ियाँ षड्यंत्र में व्यस्त थीं और बंदर किसी न किसी पेड़ पर पार्टी बदल रहे थे। ऐसे समय में तय हुआ कि अब हर जाति, प्रजाति और समूह को 'राजा' बनने का मौका दिया जाएगा — "एक जंगल, सबकी बारी" के सिद्धांत पर।
यही वह क्षण था जब “अबकी बारी सियारदास की” का नारा जंगल में गूंजने लगा। शेरों की पुरानी दहाड़ों की जगह सियारों की सामूहिक हुंआ-हुंआ ने ली, जो दिन-रात एक ‘राजगान’ की तरह जंगल में गूंजती रही। बंदरों ने इसकी ताल पर डांस किया, कौओं ने समाचार पत्रों में शीर्षक बनाए — “लोकतंत्र की जीत: सियारदास बना जंगल का पहला सियारराज!” और गधों ने हर नुक्कड़ पर रैलियाँ कर डालीं। सियारदास का सिंहासन एक ऊँचे टीले पर रखा गया, जिसे उसने खुद 'राजगद्दी' का नाम दिया। लोमड़ी मंत्री ने उसे शेरों की पुरानी जालीदार चादर ओढ़ा दी और कौओं ने ताज पहनाया — जो पत्तियों और चमकते हुए रैपरों से बना था। इस प्रकार वह शासक बन बैठा और उसकी हुंआ-हुंआ अब जंगल का कानून घोषित की गई।
राजा बनते ही सियारदास ने पहला आदेश जारी किया — “अब जंगल की हर समस्या की जड़ मेहनती प्रजातियाँ हैं! उन्हें सुधरना होगा!” यह घोषणा सुनते ही दरबार में बैठे चाटुकार जानवरों की आँखों में चमक आ गई। कौए ने तुरंत एक विशेष बुलेटिन निकाला: “मेहनतकशों ने जंगल को असंतुलित कर दिया है: नई सरकार लाएगी नियंत्रण!” गधों ने मुहावरा दोहराया — “कम बोलो, ज़्यादा ढोओ — राजा का आदेश मानो।” और बंदर ताली पीटते हुए पेड़ों से नीचे लटकते हुए नारे लगाने लगे — “घोड़े और बैल अब सीखें संस्कार, सियारराज में यही है उद्धार!”
अब दरअसल यह ‘घोषणा’ व्यंग्य के पर्दे में एक अत्यंत गम्भीर विचार को ढँक रही थी। सियारदास को बचपन से ही मेहनती प्रजातियों से चिढ़ थी — विशेषकर घोड़ों से। वह जानता था कि घोड़े दिन-रात दौड़ते हैं, भार ढोते हैं और जंगल में आवाज नहीं करते। न वे दरबार में जाते हैं, न चाटुकारिता करते हैं, न ही किसी हुंआ-हुंआ पर पूँछ हिलाते हैं। बैल भी ऐसे ही थे — शांत, विनम्र, जमीन से जुड़े हुए, लेकिन अडिग। वे खेतों में पसीना बहाते थे, लेकिन शासक के सामने सिर नहीं झुकाते थे। सियारदास को यह बर्दाश्त नहीं था — उसे आदत थी तालियों की, पूँछ हिलाने वालों की और उन आवाज़ों की जो उसकी हुंआ-हुंआ में डूब जाती थीं। अतः उसकी घोषणा का उद्देश्य साफ था — मेहनत को संदेह के घेरे में डालो और चाटुकारिता को राजकीय गुण बना दो। उसने एक नया कार्यक्रम शुरू किया — “घोड़ा पुनःसंस्कार योजना”, जिसके अंतर्गत घोड़ों को अब दौड़ने से पहले “राजगीत” गाना अनिवार्य था। बैलों को हल चलाने से पूर्व “राजअभिनंदन वंदन” करना होता था। जो जानवर अधिक चिल्ला सकता, वह ज़्यादा राष्ट्रभक्त घोषित होता। जंगल की परिभाषा ही बदल दी गई — अब चुप्पी अपराध थी और विचार एक साजिश। सियारदास ने अपने दरबार में एक ‘सियार नीति आयोग’ गठित किया, जो यह तय करता कि कौन सा जानवर कितनी बार हुंआ-हुंआ कर सकता है, किसकी चिल्लाहट में राष्ट्रनिष्ठा की झलक है और कौन अपने खुर से ज्यादा ‘कान’ चला रहा है। जो जानवर काम में रमे हुए थे, उन्हें अब संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा। कहा गया — “जो चुप है, वह राजा विरोधी है।” मेहनत अब गुनाह थी और चमचागिरी जीवनशैली।
इस प्रकार जंगल के दृश्य में एक सूक्ष्म लेकिन गहरा परिवर्तन आया। परिश्रम अब गूंगेपन का पर्याय बन गया था और ‘हुंआ-हुंआ’ एक राष्ट्रीय अनुष्ठान। जहाँ पहले घोड़े अपनी दौड़ में जंगल की दिशा तय करते थे, अब उन्हें कहा गया — “दौड़ो, लेकिन मुड़ो तभी जब राजा कहे।” बैल जो अपने सींगों पर खेत की दिशा तय करते थे, अब उन्हें कहा गया — “हल चलाओ, लेकिन सोचो मत।” यह था सियारदास का जंगल — जहाँ ‘सुनना’ था केवल उसकी हुंआ-हुंआ और ‘सोचना’ था केवल उसकी सोच। शांति अब भय से उपजी खामोशी थी और संविधान केवल दरबार के गधों की एक कॉपी। यह जंगल अब केवल एक भूगोल नहीं, एक मानसिक स्थिति बन गया था — जहाँ सियार शेर बन बैठा था, घोड़े संदिग्ध घोषित हो गए थे और चिल्लाने वालों को राष्ट्रीय गौरव कहा जाने लगा था।
जंगल की निस्तब्धता के भीतर एक दिन अचानक एक खुर की टंकार सुनाई दी — धीमी, लेकिन भारी। यह आवाज़ किसी विद्रोह की नहीं, बल्कि विवेक की थी। यह कोई ललकार नहीं थी, कोई हुंआ-हुंआ नहीं, कोई आदेश नहीं — यह एक प्रश्नचिह्न था जो जंगल की हवा में तैरता हुआ दरबार तक पहुँचा था। इस आवाज़ के पीछे था — धीरपाल, एक बूढ़ा घोड़ा। धीरपाल उन घोड़ों में से था जिनकी पीठ पर जंगल की सबसे लंबी यात्राएँ लिखी गई थीं। वह कभी सियारदास के पूर्ववर्ती शासकों के दौर में युद्धों के लिए दौड़ा था, कभी बाढ़ में बचे जानवरों को खींचकर ले गया था और कभी जंगल के बच्चों को पीठ पर स्कूल छोड़ आया था। उसके खुरों की मिट्टी में श्रम की गंध थी और उसकी आँखों में वह थकान, जो केवल सच्चे सेवकों की होती है।
राजसभा में, जहाँ अब तक केवल चाटुकारिता की प्रतिध्वनि गूंजती थी, उसने सीधा कहा — “राजा तो वह होता है जो सबकी सेवा करे, न कि सबको सज़ा दे। शेर नहीं तो मत बनो, लेकिन सियार भी रहो — आदमी मत बनो!” एक क्षण के लिए सभा को ऐसा लगा जैसे समय थम गया हो। यह पहली बार था कि किसी ने हुंआ-हुंआ को टोकने की हिम्मत की थी। सियारदास के कान खड़े हो गए, उसका चेहरा तन गया और उसके पास खड़ी लोमड़ीमंत्री ने फुसफुसा कर कहा — "यह घोड़ा जंगल की एकता को तोड़ रहा है।" वह घबराहट और उत्साह के मिश्रण से कांप रही थी, जैसे किसी ने राजध्वज को प्रश्न कर दिया हो। कौआ संवाददाता ने तत्काल अपनी चोंच में समाचार पकड़ा और कर्कश आवाज़ में बोला — “इसने तो सियारदास की हुंआ-हुंआ का अपमान किया है! यह जंगलद्रोह है!” गधों का जत्था, जो सभा में हमेशा सबसे आगे बैठता था, बिना समझे घोड़े पर थूकने लगा, जैसे यही उनका धर्म हो। लेकिन इस बार, जंगल का इतिहास किसी मोड़ पर था — क्योंकि इस अपमान से कोई डर नहीं रहा था।
ठीक वहीं से प्रतिरोध की चिंगारी फूटी। सभा में ही कुछ युवा जानवर — जिनमें तेजतर्रार हिरण, दिमागी लोमड़ और पढ़े-लिखे हाथी शामिल थे — धीरे-धीरे धीरपाल के पास आकर खड़े हो गए। हिरण ने कहा — “यह कोई राजा नहीं, हुंआ-हुंआ का तानाशाह है!” उसकी आँखों में भय नहीं, बल्कि स्पष्टता थी। लोमड़, जो सत्ता की चाटुकार नहीं बल्कि विचारशील थी, बोली — “राजा वही जो विचारों से राज करे, आवाज़ से नहीं।” और हाथी, जो जंगल का पाठशाला चलाता था, अपने सूंड से एक पुराना दस्तावेज़ लहराकर बोला — “जंगल का संविधान कहता है कि श्रमिक ही स्वामी हैं और विचारशील ही नेता।” यह दृश्य अब एक सामान्य सभा नहीं रह गया था — यह बदलते विचारों का पहला सम्मेलन था।
धीरे-धीरे जंगल में यह खबर फैलने लगी। वह कोई घोषणापत्र नहीं था, न ही क्रांति का बिगुल — वह बस एक वाक्य था जो जानवरों के बीच एक फुसफुसाहट की तरह फैलने लगा — "शेर नहीं तो मत बनो, लेकिन सियार भी रहो, आदमी मत बनो।" इस वाक्य में जो व्यंग्य था, वह किसी भी घोषणापत्र से अधिक धारदार था। क्योंकि इसमें सवाल था कि क्या सत्ता का अर्थ केवल सिंहासन पर बैठना है, या उसका अर्थ है जंगल के लिए खड़ा होना? क्या राजा वही है जो ऊँचा बोले, या वह जो सबकी सुन सके?
सियारदास और उसकी सरकार को यह बात जल्दी समझ आ गई कि यह विद्रोह केवल एक बूढ़े घोड़े का गुस्सा नहीं, एक पीढ़ी की बेचैनी है। जंगल के विभिन्न कोनों से छोटे-छोटे समूह बनने लगे। पेड़ों की छाँव में जानवर मिल-बैठकर बातें करने लगे — चुपचाप, लेकिन गहराई से। लोमड़ियाँ जो अब तक मंत्रियों की चापलूसी करती थीं, अब एक-दूसरे से कहने लगीं — “क्या वाकई यह हुंआ-हुंआ ही हमारे जंगल की भाषा है?” गिलहरियाँ जो अब तक सभा में मूँगफली बाँटती थीं, अब पत्तों पर घोषणापत्र लिखने लगीं। जंगल के मध्य में खड़े पुराने बरगद पर अब हुंआ-हुंआ नहीं, धीमी धीमी कानाफूसी गूंजती थी — वह फुसफुसाहट जिसमें प्रतिरोध पल रहा था।
इस प्रकार प्रतिरोध की शुरुआत हुई — एक ऐसी शुरुआत जिसमें शोर नहीं, बल्कि विवेक था। यह बगावत नारों से नहीं, प्रश्नों से शुरू हुई। यह क्रांति तोपों से नहीं, तर्कों से उपजी। यह लड़ाई किसी सत्ता को गिराने की नहीं, बल्कि सत्ता के मायने बदलने की थी। सियारदास अब भी राजा था, लेकिन पहली बार उसके हुंआ-हुंआ के बीच एक चुप्पी सुनाई दे रही थी — वह चुप्पी जो धीरपाल की आवाज़ से उपजी थी और जो धीरे-धीरे जंगल की आत्मा बन रही थी।