संपर्क भाषा बनाम रोजगार की भाषा : भारत में भाषा विवाद और हिंदी

उज्जवल कुमार सिंह

9/14/2025

आज़ादी से पूर्व भारत जब ब्रिटिश उपनिवेश के रूप में अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत था, तब उसकी सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक साझा संवाद की भाषा का निर्धारण था, क्योंकि यहाँ भाषाई विविधता अत्यधिक समृद्ध और जटिल थी; एक ओर संस्कृत जैसी प्राचीन भाषा थी, जो दार्शनिक और धार्मिक परंपराओं की संवाहक रही, तो दूसरी ओर बंगला, मराठी, गुजराती, पंजाबी, कन्नड, मलयालम, तेलुगु, तमिल, असमिया, उड़िया, नेपाली आदि भाषाएँ अपने-अपने प्रांतों की सांस्कृतिक, साहित्यिक और सामाजिक चेतना की आधारशिला थीं; इन भाषाओं की गहरी जड़ें धार्मिक अनुष्ठानों, लोकगीतों, साहित्यिक कृतियों और क्षेत्रीय अस्मिता से जुड़ी हुई थीं, अतः किसी एक भाषा को सबकी प्रतिनिधि भाषा घोषित करना सरल नहीं था। ब्रिटिश शासन ने अंग्रेज़ी को प्रशासन, कानून और उच्च शिक्षा की भाषा बनाकर एक नई परिस्थिति उत्पन्न कर दी थी, जिससे शासकीय कामकाज और शिक्षित अभिजात वर्ग की भाषिक दुनिया अंग्रेज़ी के इर्द-गिर्द सिमटने लगी, लेकिन ग्रामीण और शहरी आम जनता के लिए अंग्रेज़ी दूर की कौड़ी थी, उनकी समझ और पहुँच से बाहर। यही कारण था कि सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन, स्वतंत्रता संग्राम और जन-जागरण के लिए ऐसी भाषा की तलाश हुई, जो सरल, समझने योग्य, व्यापक और सम्पर्ककारी हो। इस समय हिन्दी, विशेषकर “हिन्दुस्तानी” (हिन्दी-उर्दू के मिश्रित रूप) ने धीरे-धीरे सम्पर्क भाषा का रूप लेना शुरू किया, क्योंकि वह एक ओर उत्तर भारत के विशाल भूभाग में सामान्य जीवन की भाषा थी, तो दूसरी ओर उसकी सहजता और लचीलेपन ने उसे अन्य भाषाभाषी समुदायों से भी जोड़ना शुरू कर दिया। स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं—गांधीजी, नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद और अन्य ने इसे जनता से संवाद का माध्यम बनाने पर बल दिया, क्योंकि राष्ट्रीय चेतना का प्रसार तभी सम्भव था जब भाषायी अवरोध टूटें और एक साझा मंच तैयार हो। यही कारण था कि भाषायी विविधता के बीच भी एक ऐसी साझा भाषा की खोज, जो प्रशासन की अंग्रेज़ी और प्रांतों की भाषाओं के बीच सेतु बन सके, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक और राजनीतिक कार्यभार बन गया।

हिन्दी और “हिन्दुस्तानी” का उभार भारतीय भाषायी इतिहास और स्वतंत्रता आंदोलन की वैचारिकी के संदर्भ में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रसंग है, क्योंकि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर बीसवीं शताब्दी के आरंभ तक भारत की राष्ट्रीय चेतना, सांस्कृतिक एकता और राजनीतिक जागरण की ज़रूरतों ने एक साझा संवाद की भाषा की खोज को तीव्र कर दिया था; यह भाषा किसी एक प्रांत या समुदाय की भाषा न होकर ऐसी होनी चाहिए थी, जो व्यापक भूगोल में सहज रूप से समझी और बोली जा सके, और इस कसौटी पर “हिन्दुस्तानी” धीरे-धीरे सम्पर्क भाषा के रूप में उभरने लगी। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि उस समय “हिन्दी” का आशय केवल संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली हिन्दी नहीं था, बल्कि उस मिश्रित भाषा से था, जिसे हम आज “हिन्दुस्तानी” नाम से जानते हैं—यह भाषा उर्दू और हिन्दी दोनों की सम्मिलित परंपरा से जन्मी थी, जिसमें एक ओर संस्कृत और प्राकृत की ध्वनियाँ और शब्द भंडार थे, तो दूसरी ओर फ़ारसी और अरबी की प्रभावशाली छाया थी; इस भाषिक संलयन ने इसे एक लचीला और सर्वस्वीकार्य रूप प्रदान किया। नगरों, कस्बों, हाट-बाज़ारों, मेलों और यात्राओं में लोग प्रायः इसी भाषा का प्रयोग करते थे; इसने न केवल धार्मिक संवाद और व्यापारिक लेन-देन को सरल बनाया, बल्कि उत्तर भारत के अधिकांश क्षेत्रों—बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य भारत, राजस्थान और पंजाब तक—सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में सहज संप्रेषण का कार्य भी किया। इसका कारण यह था कि हिन्दुस्तानी बोली में कोई भाषायी कठोरता नहीं थी, बल्कि उसमें अपनापन और लचीलापन था, जिसके चलते वह उच्चवर्गीय अभिजात वर्ग से लेकर साधारण ग्रामीण जन तक सबकी अभिव्यक्ति का माध्यम बनती चली गई।

यही कारण था कि बीसवीं शताब्दी के आरंभ तक आते-आते यह भाषा केवल साहित्यिक जगत तक सीमित न रहकर जन-आंदोलन, धार्मिक प्रचार-प्रसार, व्यापार और राजनीतिक संगठन की अनिवार्य कड़ी बन गई। इस भाषा का सबसे बड़ा गुण था कि वह भाषायी खाइयों को पाटती थी—एक ओर संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का प्रयोग करने वाले उसे अपना मान सकते थे, तो दूसरी ओर उर्दू का प्रयोग करने वाले भी उसमें अपनी पहचान खोज सकते थे, क्योंकि दोनों की बुनियाद वही खड़ीबोली थी, जिसने अपनी लचीली प्रकृति के कारण सबको स्थान दिया। यही कारण था कि राष्ट्रीय नेताओं और जनांदोलन के पुरोधाओं ने इसे राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की आकांक्षा की।

महात्मा गांधी इस संदर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व के रूप में सामने आते हैं; उन्होंने इस भाषा की महत्ता को बहुत पहले पहचान लिया था और 1917 में गुजरात एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस में अपने ऐतिहासिक वक्तव्य में यह स्पष्ट कर दिया था कि भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश को एक ऐसी भाषा चाहिए, जो सरकारी अधिकारियों और आम जनता दोनों के लिए सरल और सुलभ हो, जो केवल शिक्षित वर्ग तक सीमित न रहकर खेतों, कारखानों और बाज़ारों तक पहुँचे, और जिसमें सम्प्रेषण की सहजता और आत्मीयता बनी रहे।[1] गांधीजी का मानना था कि अंग्रेज़ी, जो उस समय शासन और उच्च शिक्षा की भाषा थी, आम जनता के लिए अप्राप्य थी, इसलिए राष्ट्रीय जीवन और स्वतंत्रता आंदोलन की चेतना में उसका कोई वास्तविक योगदान नहीं हो सकता था। इसके विपरीत हिन्दी, विशेषकर हिन्दुस्तानी, ऐसी भाषा थी, जो पूरे देश को एक सूत्र में बाँध सकती थी, क्योंकि वह किसी एक धर्म, जाति या संप्रदाय की बपौती न होकर सभी की साझी भाषा थी। गांधीजी ने इसीलिए “हिन्दुस्तानी” शब्द का प्रयोग करते हुए यह स्पष्ट किया कि राष्ट्रभाषा वही हो सकती है, जो संस्कृत और फ़ारसी-उर्दू दोनों से पोषित हो, जिसमें भारतीयता का सहज स्वर गुंथा हो और जो कृत्रिम संस्कृतनिष्ठ या फ़ारसियत-निष्ठ न होकर व्यापक जनमानस की भाषा बनी रहे।[2] उन्होंने यह भी कहा कि देश की भाषाई विविधता को देखते हुए यदि कोई भाषा राष्ट्रभाषा बन सकती है तो वह केवल हिन्दुस्तानी है, क्योंकि उसमें न तो अति संस्कृतनिष्ठता की जकड़न है, न ही उर्दू की अतिशय फ़ारसी छाया, बल्कि वह दोनों की सहज संगति से बनी है। गांधीजी का यह दृष्टिकोण वस्तुतः भाषाई लोकतंत्र की ओर इशारा करता है, क्योंकि उनकी नज़र में भाषा केवल अभिव्यक्ति का साधन न होकर राष्ट्रीय एकता का माध्यम थी। उनका आग्रह इस बात पर था कि इस भाषा को केवल शिक्षित वर्ग ही नहीं, बल्कि गाँव का किसान, शहर का मज़दूर, व्यापारी, छात्र और महिला—सभी सहजता से बोल और समझ सकें। इसीलिए उन्होंने अंग्रेज़ी के स्थान पर हिन्दुस्तानी को अपनाने पर बल दिया और बार-बार यह कहा कि यदि स्वतंत्र भारत को एक सशक्त और आत्मनिर्भर राष्ट्र बनाना है तो उसकी आत्मा से जुड़ी भाषा ही उसका आधार होनी चाहिए। गांधीजी का यह दृष्टिकोण न केवल व्यावहारिक था, बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से भी गहरी अंतर्दृष्टि से भरा हुआ था, क्योंकि उन्होंने समझ लिया था कि किसी भी उपनिवेशित समाज को अपनी आत्मा से जुड़ने के लिए मातृभाषा या अपनी ज़मीन की भाषा की ओर लौटना होगा। हिन्दुस्तानी का उभार इसीलिए केवल भाषाई प्रक्रिया नहीं था, बल्कि वह भारत के राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया का अनिवार्य हिस्सा था। स्वतंत्रता संग्राम की बैठकों, सभाओं, आंदोलनों, सत्याग्रहों और संवादों में यही भाषा प्रयोग में आने लगी, और इस प्रकार उसने भारतीय जनमानस को एकजुट करने में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वास्तव में, उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर बीसवीं शताब्दी के आरंभ तक हिन्दी और हिन्दुस्तानी का क्रमिक उभार भारतीय इतिहास की उस अनिवार्य यात्रा का हिस्सा है, जिसमें भाषा राष्ट्रीय अस्मिता और राजनीतिक मुक्ति की शक्ति में रूपांतरित हो जाती है।

दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार का प्रयास भारतीय भाषायी एकता और राष्ट्रीय आंदोलन के संदर्भ में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण पहल के रूप में सामने आया, क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान यह अनुभव किया जाने लगा था कि यदि सम्पूर्ण भारत को एक साझा मंच पर लाना है तो उत्तर और दक्षिण, पूर्व और पश्चिम सभी को जोड़ने वाली कोई भाषा चाहिए, और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए महात्मा गांधी ने 1918 में “दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा” की स्थापना कराई, जिसका ध्येय था दक्षिण भारत के लोगों को हिन्दी का शिक्षण देकर उन्हें उत्तर भारत और देश के अन्य हिस्सों के साथ भाषाई स्तर पर जोड़ना; इस संस्था की स्थापना वस्तुतः उस व्यापक विचारधारा का हिस्सा थी, जिसमें गांधीजी ने हिन्दुस्तानी—अर्थात् हिन्दी और उर्दू के सम्मिलित रूप—को राष्ट्रीय संवाद की भाषा के रूप में देखा और उसे स्वतंत्रता आंदोलन की चेतना में शामिल किया और जब उन्होंने देखा कि दक्षिण भारत में भाषाई विविधता और जटिलता के कारण हिन्दी से सीधा सम्पर्क कठिन है, तो उन्होंने ठोस संगठित प्रयास की आवश्यकता महसूस की, जिसके फलस्वरूप “दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा” अस्तित्व में आई।

इस संस्था ने अपने प्रारंभिक वर्षों में ही उल्लेखनीय काम किया; विद्यालयों, कॉलेजों और गाँवों में हिन्दी की कक्षाएँ संचालित की गईं, और बड़ी संख्या में स्वयंसेवक तैयार किए गए, जो हिन्दी को पढ़ाने का कार्य करते थे; यह प्रयास केवल शहरी केंद्रों तक सीमित नहीं था, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों तक भी पहुँचाया गया, ताकि किसानों, मजदूरों, व्यापारियों और सामान्य जनता को भी हिन्दी सिखाई जा सके। सभा ने इस कार्य को व्यवस्थित बनाने के लिए परीक्षा प्रणाली भी बनाई—जिसमें “प्राथमिक”, “मध्यमा” और “रत्न” जैसे स्तर निर्धारित किए गए; इन परीक्षाओं के माध्यम से छात्रों की योग्यता की जाँच की जाती और उन्हें प्रमाणपत्र प्रदान किए जाते, जिससे लोगों को भाषा सीखने के प्रति प्रेरणा मिलती और यह अध्ययन किसी औपचारिक शैक्षिक प्रक्रिया की तरह स्थापित होने लगा। इन प्रयासों का परिणाम यह हुआ कि हजारों विद्यार्थी और ग्रामीण धीरे-धीरे हिन्दी पढ़ने-लिखने लगे और उन्हें देश के अन्य हिस्सों के साथ संवाद करने की नई सामर्थ्य प्राप्त हुई। विशेषकर उन इलाक़ों में, जहाँ व्यापारिक लेन-देन और राजनीतिक आंदोलन में अन्य भाषाभाषी लोगों से सम्पर्क बढ़ रहा था, हिन्दी का व्यावहारिक उपयोग दिखाई देने लगा; व्यापारी वर्ग ने इसे एक सहज सम्पर्क भाषा के रूप में अपनाना शुरू किया, क्योंकि हिन्दी के माध्यम से वे उत्तर भारतीय व्यापारियों से आसानी से संवाद कर सकते थे, वहीं राजनीति में भी हिन्दी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, क्योंकि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान देशव्यापी सभाएँ, सम्मेलन और आंदोलन संगठित करने के लिए एक साझा भाषा की आवश्यकता थी।

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा ने केवल शिक्षा तक अपने काम को सीमित नहीं रखा, बल्कि उसने सांस्कृतिक गतिविधियों, नाटकों, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं और भाषणों के माध्यम से भी हिन्दी का प्रचार किया; इसने दक्षिण भारत की जनता को यह अनुभव कराया कि हिन्दी केवल उत्तर भारत की भाषा नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारत की भाषा है, जो सबको एक सूत्र में बाँधने की शक्ति रखती है। गांधीजी का यह विचार कि भाषा केवल संप्रेषण का साधन नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एकता का माध्यम है, इस संस्था की गतिविधियों में स्पष्ट रूप से झलकता है; उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि हिन्दी का प्रचार किसी अन्य भाषा को दबाने या उसकी अस्मिता को नकारने के लिए नहीं है, बल्कि विविध भाषाओं के बीच सेतु बनाने के लिए है। इसीलिए सभा का कार्य दक्षिण भारत में भाषाई अस्मिता के साथ टकराव की बजाय सहयोग और संवाद की भावना पर आधारित था।

समय के साथ इस संस्था ने इतना व्यापक रूप ग्रहण कर लिया कि उसने लाखों लोगों तक हिन्दी की पहुँच बनाई और स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान यह भाषा राजनीतिक संवाद और सामाजिक चेतना की धुरी बन गई। वास्तव में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा ने हिन्दी को उत्तर भारत की सीमाओं से बाहर निकालकर अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित करने की दिशा में निर्णायक कदम उठाया; इसके परिणामस्वरूप स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में जब नेता—गांधीजी, नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल आदि—देश के विभिन्न हिस्सों में सभाएँ करते थे, तब दक्षिण भारत में भी जनता हिन्दी में दिए गए उनके विचारों को समझने में सक्षम हो पाती थी। इस संस्था का योगदान यही नहीं रुका; आज़ादी के बाद भी इसने अपना कार्य जारी रखा और आज भी वह दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार-प्रसार की प्रमुख संस्था है, जिसके द्वारा आयोजित परीक्षाएँ और शिक्षण कार्यक्रम निरंतर चलते हैं। इस प्रकार दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार का यह प्रयास केवल भाषा शिक्षण की प्रक्रिया नहीं था, बल्कि वह भारत की राष्ट्रीय एकता की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम था, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन को भाषाई आधार दिया और हिन्दी को अखिल भारतीय सम्पर्क भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में निर्णायक भूमिका निभाई।

दक्षिण भारत की भाषाएँ—तमिल, कन्नड, तेलुगु और मलयालम—बहुत प्राचीन, समृद्ध और गहरी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ी हुई भाषाएँ हैं। इनकी परंपरा केवल साहित्य तक सीमित नहीं रही, बल्कि दर्शन, संगीत, नाटक, धार्मिक जीवन और सामाजिक चेतना में भी इन भाषाओं की निर्णायक भूमिका रही है। तमिल भाषा का इतिहास तो दो हज़ार साल से भी अधिक पुराना है, जिसमें संगम साहित्य से लेकर आधुनिक साहित्यिक धारा तक की सुदृढ़ परंपरा मौजूद है; इसी प्रकार कन्नड का समृद्ध “वचन साहित्य”, तेलुगु का “प्रबंध साहित्य” और मलयालम की विशिष्ट साहित्यिक धरोहर दक्षिण भारत की पहचान और गौरव से जुड़ी हुई हैं। ऐसे में जब हिन्दी का प्रचार दक्षिण भारत में शुरू हुआ तो वह आसान नहीं था, क्योंकि यहाँ के लोग अपनी भाषाई परंपरा पर गहरा गर्व करते थे और बाहरी भाषा को सहजता से स्वीकार करने में संकोच करते थे। गांधीजी द्वारा 1918 में स्थापित “दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा” ने प्रारंभिक दौर में हिन्दी का प्रचार स्वैच्छिक रूप से किया और इसे अपनाने वालों की संख्या भी धीरे-धीरे बढ़ने लगी। उस समय हिन्दी का स्वरूप मुख्यतः सम्पर्क भाषा का था, जिसमें सहजता और लचीलापन था; इसलिए यह उत्तर भारत के आंदोलनों, कांग्रेस की बैठकों और अखिल भारतीय सम्मेलनों में संवाद की प्रमुख भाषा के रूप में स्वीकार्य हो गई। दक्षिण भारत में हिन्दी का उपयोग इसलिए भी बढ़ा क्योंकि स्वतंत्रता आंदोलन की राष्ट्रीय चेतना को समझने और उसमें भागीदारी निभाने के लिए हिन्दी का ज्ञान उपयोगी सिद्ध हो रहा था।

किन्तु इस सम्पूर्ण प्रक्रिया की आलोचनात्मक दृष्टि से पड़ताल की जाए तो यह साफ़ दिखता है कि हिन्दी का यह विस्तार कई चुनौतियों और सीमाओं से घिरा हुआ था। सबसे पहली चुनौती यह थी कि दक्षिण भारत के लोग हिन्दी के प्रसार को अकसर उत्तर भारत से दक्षिण की ओर “एकतरफ़ा थोपना” मानते थे। स्थानीय भाषाओं और संस्कृतियों को बराबर सम्मान और स्थान न देने की शिकायतें सामने आईं। तमिलनाडु में हिन्दी विरोधी आंदोलनों की पृष्ठभूमि इसी असंतोष में निहित थी, क्योंकि वहाँ यह धारणा बन गई कि हिन्दी को शिक्षा और प्रशासन में लाने का अर्थ है तमिल भाषा के महत्व को कम करना।

दूसरी सीमा यह रही कि यद्यपि हिन्दी सम्पर्क भाषा के रूप में जन संवाद और आंदोलन की भाषा बनी, फिर भी वह अंग्रेज़ी के वर्चस्व को समाप्त नहीं कर पाई। शिक्षा, प्रशासन और न्यायालयों में अंग्रेज़ी की पकड़ इतनी मज़बूत थी कि हिन्दी की भूमिका वहाँ गौण रह गई। इस प्रकार हिन्दी का प्रयोग आम संवाद में तो बढ़ा, परंतु रोजगार, सरकारी कामकाज और उच्च शिक्षा में उसकी स्थिति अपेक्षाकृत कमज़ोर रही। तीसरी आलोचना यह है कि गांधीजी जिस “हिन्दुस्तानी” की बात करते थे—जो संस्कृत और फ़ारसी-उर्दू दोनों से पोषित, सहज और लचीली सम्पर्क भाषा थी—वह धीरे-धीरे अपने मूल स्वरूप से दूर होती चली गई। स्वतंत्रता आंदोलन के बाद भाषा का यह सहज रूप दो ध्रुवों की ओर खिंच गया—एक ओर संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का आग्रह बढ़ा, दूसरी ओर उर्दू पर फ़ारसी और अरबी का प्रभाव गहरा हुआ। इस खिंचाव ने उस सरल हिन्दुस्तानी को कमज़ोर कर दिया, जो सबसे अधिक संवादशील और सम्पर्ककारी थी। आलोचक मानते हैं कि यदि वही हिन्दुस्तानी राष्ट्रीय भाषा के रूप में विकसित की जाती, तो सम्भवतः हिन्दी को पूरे देश में अधिक सहज स्वीकार्यता मिलती और दक्षिण भारत में विरोध की तीव्रता भी उतनी न होती।

इन सभी कारणों से यह स्पष्ट होता है कि दक्षिण भारत में हिन्दी का प्रचार एक ऐतिहासिक और महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया थी, परंतु उसमें अंतर्निहित सीमाएँ और विरोधाभास भी उतने ही गहरे थे। यह प्रक्रिया एक ओर भारतीय एकता और स्वतंत्रता आंदोलन के लिए आवश्यक रही, तो दूसरी ओर उसने भाषाई अस्मिता और सांस्कृतिक पहचान की जटिलताओं को भी उजागर किया।

“संपर्क भाषा” और “रोजगार की भाषा” ये दोनों अवधारणाएँ भाषायी समाजशास्त्र एवं भाषाई राजनीति में बहुत महत्वपूर्ण हैं[3], विशेषकर बहुभाषी देशों जैसे भारत में।[4] संपर्क भाषा वह होती है जो विभिन्न मातृभाषी बोलने वालों के बीच संवाद स्थापित करने में सहायक हो — उदाहरण स्वरूप हिन्दी, अंग्रेज़ी या कोई क्षेत्रीय भाषा, जो प्रादेशिक या जातीय विविधता वाले लोगों को आपस में जोड़ सके। रोजगार की भाषा वह होती है जिसमें आर्थिक गतिविधियाँ, सरकार या निजी संस्थानों में रोजगार, कार्यालयी संवाद, न्याय-प्रक्रिया, प्रतियोगी परीक्षाएँ आदि संचालित होती हों; यह भाषा उच्च सामाजिक और आर्थिक पुरस्कारों से जुड़ी होती है। भारत में इन दोनों भाषाओं के बीच विभाजन मात्र सैद्धांतिक नहीं, बल्कि वास्तविक एवं कई बार विवादास्पद है। उदाहरण के लिए, अंग्रेज़ी भारत की शिक्षा व्यवस्था, उच्च शिक्षा, वैज्ञानिक शोध एवं वैश्विक कारोबारों में प्रमुख रोजगार की भाषा बनी हुई है। भारतीय विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों में पाठ्य-लेखन, शोधपत्र, वैज्ञानिक प्रकाशन इत्यादि में अंग्रेज़ी का वर्चस्व है (Hafer, 2022)[5]। दूसरी ओर, हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाएँ अक्सर संपर्क भाषा की भूमिका निभाती हैं — ग्रामीण इलाकों, स्थानीय बाज़ारों, मीडिया (लोकल अख़बार, रेडियो), राजनीतिक रैलियों एवं सामाजिक सभा-सभाओं में हिन्दी या अनेक क्षेत्रीय भाषाएँ लोगों के बीच संवाद के लिए उपयोगी होती हैं।

भारत में यह विभाजन हमेशा स्पष्ट नहीं रहता क्योंकि एक भाषा दोनों भूमिकाएँ निभाती है। कई ग्रामीण एवं अर्ध-शहरी क्षेत्रों में हिन्दी को लोग सम्पर्क भाषा की तरह अपने आसपास की भाषाओं (मूल मातृभाषाओं) के बीच सहज संवाद के लिए प्रयोग करते हैं, लेकिन जब कोई व्यक्ति उन्नत पढ़ाई, सरकारी नौकरी या प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करता है, तो अक्सर अंग्रेज़ी या उस भाषा का ज्ञान अनिवार्य हो जाता है जो रोजगार की भाषा है (Joseph, Jennifer & Chery, Emma. (2023)[6] उदाहरण के लिए, सरकारी सेवा आयोगों की प्रतियोगी परीक्षाएँ, न्यायालयों में वकालत, तकनीकी एवं चिकित्सकीय शिक्षा में अंग्रेज़ी आवश्यक होती है, जिससे हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाएँ, भले ही संपर्क भाषा के रूप में जीवंत और व्यापक हों, उनकी भूमिका सशक्त नहीं होती वहीं उच्च पदों पर। इसी प्रकार, शिक्षा में माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी विद्यालयों में अधिक लोकप्रिय है, क्योंकि श्रम बाजार में अंग्रेज़ी दक्षता वाले उम्मीदवारों को अधिक अवसर मिलते हैं।

इसके अतिरिक्त, संपर्क भाषा और रोजगार की भाषा के बीच सामाजिक तथा संवेदनशील राजनीतिक-भाषायी झंझट भी हैं। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी को रोजगार की भाषा बनाने की विबिन्न राज्य और केन्द्रशासित पहलकदमियाँ रही हैं, लेकिन अनेक क्षेत्रीय भाषाभाषी दक्षिण भारत, पूर्वोत्तर भारत आदि में अंग्रेज़ी के वर्चस्व को इसलिए स्वीकार करते हैं क्योंकि अंग्रेज़ी का सामाजिक एवं आर्थिक मूल्य बहुत अधिक माना जाता है। यही कारण है कि कई लोग हिन्दी को संवाद और स्थानीय स्तर पर अच्छी समझ के लिए स्वीकारते हैं, लेकिन अपने करियर के लिए अंग्रेज़ी सीखने व उपयोग करने को प्राथमिकता देते हैं। इस तरह, संपर्क भाषा की भूमिका हिन्दी या क्षेत्रीय भाषा में मजबूत होती है, पर रोजगार की भाषा की भूमिका में अंग्रेज़ी अभी भी प्रमुख है।

अंततः, इस विभाजन से यह स्पष्ट होता है कि भाषा नीति, शिक्षा नीति, प्रतियोगी परीक्षाएँ और सरकारी नौकरियों की भाषा-आवश्यकताएँ यह निर्धारित करती हैं कि किस भाषा को “रोजगार की भाषा” का दर्जा मिलेगा — और इसीलिए संपर्क भाषा से रोजगार की भाषा बनने की प्रक्रिया संघर्षों, राजनीतिक निर्णयों, आर्थिक विषमताओं और भाषा-से सम्बन्धित असमान अवसरों से भरी रहती है। उदाहरण के लिए, हिन्दी को संपर्क भाषा के रूप में दक्षिण भारत के कुछ इलाकों में स्वीकार किया गया, पर शिक्षा और सरकारी नौकरियों में उसका प्रभाव उतना नहीं हो पाया जितना अंग्रेज़ी का; इसी तरह अंग्रेज़ी-ज्ञान की कमी लोगों के सामने रोजगार की ज़रूरतों के अनुसार बड़ी अड़चन बन जाती है।

भारत में भाषा विवाद और हिंदी का प्रश्न एक अत्यंत जटिल और संवेदनशील विमर्श है, क्योंकि भारत बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक और बहुजातीय समाज है जहाँ भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं बल्कि सांस्कृतिक पहचान, राजनीतिक अधिकार और सामाजिक सम्मान का प्रतीक भी है। संविधान के अनुच्छेद 343 से 351 तक भाषा संबंधी प्रावधान किए गए हैं, जिनमें हिंदी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया तथा अंग्रेज़ी को सहायक राजभाषा के रूप में मान्यता दी गई। यह व्यवस्था अस्थायी रूप से 15 वर्ष के लिए मानी गई थी, किंतु राजनीतिक दबाव और दक्षिण भारत में हिंदी विरोधी आंदोलनों के चलते अंग्रेज़ी का प्रयोग आज भी अनिवार्य रूप से जारी है।

हिंदी की स्थिति को लेकर विवाद की पृष्ठभूमि औपनिवेशिक काल से ही स्पष्ट दिखाई देती है; अंग्रेज़ों ने प्रशासन और शिक्षा में अंग्रेज़ी को प्रधान भाषा बनाया, जिससे अंग्रेज़ी जानने वाला वर्ग विशिष्ट विशेषाधिकार प्राप्त करने लगा। स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को प्रतिष्ठित करने की मांग उठी, किंतु संविधान सभा में लम्बी बहसों के बाद इसे केवल राजभाषा का दर्जा दिया गया। यही कारण था कि हिंदी को लेकर गैर-हिंदीभाषी राज्यों, विशेषकर तमिलनाडु, कर्नाटक, बंगाल और असम में तीव्र विरोध हुआ। तमिलनाडु में 1965 का हिंदी विरोधी आंदोलन इस विवाद का प्रमुख उदाहरण है, जब हिंदी थोपने की नीति के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन हुए और अंततः केंद्र सरकार को झुकना पड़ा। दरअसल भाषा विवाद केवल हिंदी और अन्य भाषाओं के बीच संघर्ष नहीं है बल्कि यह सत्ता, अवसर और सांस्कृतिक अस्मिता के टकराव का प्रतीक है।

हिंदी समर्थक पक्ष यह तर्क देता है कि हिंदी देश में सर्वाधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है, इसलिए इसे राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क भाषा बनाना स्वाभाविक और व्यावहारिक है। भारतीय जनगणना 2011 के अनुसार हिंदी और उसकी उपभाषाओं को बोलने वालों की संख्या लगभग 44 प्रतिशत है, जो अन्य किसी भी भाषा से कहीं अधिक है। किंतु हिंदी विरोधी पक्ष का कहना है कि किसी भी भाषा को बहुसंख्यक होने के आधार पर थोपना लोकतांत्रिक विविधता और भाषायी अधिकारों का उल्लंघन है। वे मानते हैं कि भारत की ताक़त उसकी भाषायी विविधता में निहित है, जहाँ तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम जैसी द्रविड़ भाषाएँ, बंगाली, मराठी, गुजराती जैसी आर्य भाषाएँ तथा असमिया, उर्दू और अन्य भाषाएँ समान रूप से समृद्ध साहित्य और सांस्कृतिक परंपरा की धरोहर हैं।

भाषा विवाद का एक आयाम रोजगार और अवसरों से भी जुड़ा है; अंग्रेज़ी आज भी उच्च शिक्षा, न्यायपालिका, विज्ञान-प्रौद्योगिकी और निजी क्षेत्र की अनिवार्य भाषा बनी हुई है, जबकि हिंदी क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर प्रशासन तथा राजनीति की भाषा के रूप में प्रचलित है। यही कारण है कि हिंदी जानने वाला व्यक्ति ग्रामीण और स्थानीय स्तर पर लाभान्वित होता है, जबकि अंग्रेज़ी जानने वाला व्यक्ति वैश्विक और औद्योगिक स्तर पर प्रतिस्पर्धा में आगे निकल जाता है। इस प्रकार भाषा विवाद केवल हिंदी बनाम गैर-हिंदी का प्रश्न नहीं है, बल्कि हिंदी और अंग्रेज़ी के बीच भी संघर्ष मौजूद है। हिंदी को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार और कई राज्य सरकारों ने विभिन्न नीतियाँ बनाई हैं, जैसे कि हिंदी दिवस, हिंदी शिक्षण योजना, हिंदी में राजभाषा कार्यशालाएँ आदि, परंतु यह अक्सर औपचारिकता भर रह जाती हैं क्योंकि वास्तविक कार्य अंग्रेज़ी में ही अधिकतर होता है।

भाषा विवाद का एक और पहलू यह है कि हिंदी का मानकीकरण और उसका स्वरूप भी विवाद का विषय है; शुद्ध हिंदी बनाम मिश्रित हिंदी, संस्कृतनिष्ठ हिंदी बनाम उर्दूनिष्ठ हिंदी—ये सब मुद्दे हिंदी के सामाजिक स्वीकार्य स्वरूप को प्रभावित करते हैं। हिंदी फिल्मों, मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से एक मिश्रित हिंदी विकसित हुई है, जो संपर्क भाषा की भूमिका निभा रही है, किंतु औपचारिक राजकीय हिंदी अभी भी आम जनजीवन से दूर प्रतीत होती है। अतः भारत में भाषा विवाद का समाधान केवल किसी एक भाषा को थोपने में नहीं, बल्कि बहुभाषिकता को स्वीकार करने और भाषायी न्याय सुनिश्चित करने में निहित है। हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में महत्व दिया जा सकता है, परंतु क्षेत्रीय भाषाओं की उपेक्षा किए बिना और अंग्रेज़ी के व्यावहारिक महत्व को समझते हुए। आज आवश्यकता इस बात की है कि हिंदी, अंग्रेज़ी और क्षेत्रीय भाषाओं के बीच संतुलन स्थापित किया जाए, जिससे न तो सांस्कृतिक अस्मिता को ठेस पहुँचे और न ही रोजगार और अवसरों की संभावनाएँ सीमित हों। इस दिशा में बहुभाषिक शिक्षा नीति, अनुवाद और तकनीकी साधनों का उपयोग, तथा भाषायी संवाद-संवेदनशीलता को बढ़ावा देना आवश्यक है। हिंदी तभी वास्तविक राष्ट्रीय भाषा बन सकती है जब वह किसी पर थोपी न जाए बल्कि सहमति, सम्मान और व्यवहारिक उपयोगिता के आधार पर स्वीकार्य हो। इस प्रकार भाषा विवाद के केंद्र में हिंदी का प्रश्न भारत की राष्ट्रीय एकता, सांस्कृतिक विविधता और सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता से गहरे जुड़ा हुआ है।

भारत में भाषा विवाद विशेष रूप से हिंदी की भूमिका को लेकर पुनः तीव्र हो गया है, विशेषकर NEP 2020 और तीन-भाषा सूत्र के कार्यान्वयन के संदर्भ में, जहाँ केंद्र सरकार द्वारा हिंदी को थोपने का संदेह गैर-हिंदी भाषी राज्यों में उत्पन्न हो रहा है।[7] तमिलनाडु के मुख्यमंत्री म.के. स्तालिन ने इस नीति को “हिंदुत्व नीति”[8] बताते हुए इसे हिंदी और संस्कृत को क्षेत्रीय भाषाओं से ऊपर रखने का प्रयत्न करार दिया है।[9] सरकार का तर्क है कि NEP 2020 में किसी भाषा को अनिवार्य करने का कोई प्रावधान नहीं है और प्रत्येक राज्य को यह स्वतंत्रता है कि वह किस भाषा/भाषाओं को प्राथमिक, माध्यमिक शिक्षा तथा सरकारी कामकाज में अपनाए।[10],[11] उदाहरण के लिए महाराष्ट्र में कक्षा 1–5 के लिए हिंदी को तीसरी भाषा बनाने की घोषणा की गई, जिसके बाद विरोध और राज्य सरकार द्वारा उस निर्णय की वापसी[12] भी हुई[13][14] इसी प्रकार, तमिलनाडु सरकार ने NEP 2020 में त्रिभाषा नीति लागू करने को केंद्र का हिंदी थोपने का माध्यम बताया है और राज्य ने क़ानूनी, संवैधानिक और शैक्षणिक विमर्शों के माध्यम से अपनी भाषा नीति और शिक्षा प्रणाली की स्वायत्तता बनाए रखने की ओर कदम बढ़ाए हैं। शोधों में यह भी पाया गया है कि हिंदी-भाषियों तथा गैर-हिंदी भाषियों के बीच अंग्रेज़ी और हिंदी-स्वामित्व (language hegemony) को लेकर जागरूक और अवचेतन मान्यताएँ भिन्न हैं; जहाँ कुछ लोग हिंदी को संपर्क भाषा और राष्ट्रीय पहचान के लिए आवश्यक मानते हैं, वहीं अन्य इसे रोजगार के अवसरों में असमानता उत्पन्न करने वाली भाषा के रूप में देखते हैं।[15] इस तरह, हिंदी की बढ़ती सार्वजनिक और प्रशासनिक उपस्थिति, अंग्रेज़ी की वैश्विक-प्रभावी भूमिका, और क्षेत्रीय भाषाओं की सांस्कृतिक पहचान के संघर्ष के बीच एक संतुलन खोजने की आवश्यकता है, ताकि भाषा नीति केवल प्रतीकात्मक न हो बल्कि सामाजिक न्याय, अवसर समानता और भाषा-अधिकारों की रक्षा करे।

[1] https://www.gsreekumar.com/official-language/

[2]https://www.telegraphindia.com/india/fact-check-did-gandhi-want-hindi-as-national-language/cid/1705408

[3] Khan, Sadaf & Jayaraj, Thapasya. (2024). From colonial legacy to contemporary reality: attitudes towards English and Hindi hegemony in India. Humanities and Social Sciences Communications. 11. 10.1057/s41599-024-03878-6.

[4] https://www.epw.in/engage/article/national-language-debate-what-does-it-mean-indian

[5] Hafer, Jörg (2022). The Question of the Place of Hindi & English in Indian Higher Education.

[6] Joseph, Jennifer & Chery, Emma. (2023). A CRITICAL STUDY ON THE IMPORTANCE OF COMMUNICATIVE ENGLISH IN EMPLOYEES OF THE INDIAN TRANSPORTATION SECTOR, JOURNAL OF THE ASIATIC SOCIETY OF MUMBAI, ISSN: 0972-0766, Vol. XCVI, No.3, 2022.

[7] https://trt.global/world/article/9093148c471b

[8] https://www.aljazeera.com/news/2025/4/10/indias-language-war-why-is-hindi-causing-a-north-south-divide

[9] https://www.tamilguardian.com/content/what-nep-controversy-explaining-tamil-nadus-resistance-hindi-imposition

[10]https://timesofindia.indiatimes.com/education/news/education-minister-clarifies-nep-2020-doesnt-impose-hindi-and-promotes-education-in-the-mother-tongue/articleshow/118672829.cms

[11] https://www.indiatoday.in/india-today-insight/story/why-nep-2020-has-turned-a-language-battle-in-tamil-nadu-2692146-2025-03-11

[12]https://timesofindia.indiatimes.com/city/mumbai/chief-minister-fadnavis-rolls-back-hindi-govt-resolutions-as-opposition-hits-the-streets-in-mumbai/articleshow/122147148.cms

[13]https://economictimes.indiatimes.com/news/politics-and-nation/maharashtra-makes-hindi-3rd-language-for-class-1-5-opposition-protests/articleshow/121937613.cms?from=mdr

[14] https://www.thehindu.com/news/national/maharashtra/hindi-as-third-language-in-maharashtra-schools-receives-flak-opposition-calls-it-betrayal/article69708565.ece

[15] Khan, S., Jayaraj, T. From colonial legacy to contemporary reality: attitudes towards English and Hindi hegemony in India. Humanit Soc Sci Commun 11, 1594 (2024). https://doi.org/10.1057/s41599-024-03878-6