निराला की दृष्टि में राम : पौराणिकता का आधुनिक पाठ और राम की शक्ति पूजा की मौलिक कल्पना
यह शोध आलेख सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की कालजयी रचना ‘राम की शक्ति पूजा’ पर केंद्रित एक विस्तृत विश्लेषण है, जिसकी मूल प्रस्तुति पहली बार 23 मई 2020 को प्रकाशित हुई थी। प्रस्तुत लेख का यह संस्करण संशोधित एवं परिवर्धित रूप है, जिसमें कविता के नाटकीय, मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक तथा प्रतीकात्मक पक्षों को समसामयिक संदर्भों के साथ पुनः विश्लेषित किया गया है।
शोध आलेख
उज्जवल कुमार सिंह
6/22/2025
आधुनिक हिंदी कविता के विकास क्रम में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ एक ऐसे अप्रतिम कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जिनका साहित्यिक अवदान केवल भाषिक नवाचार या शैलीगत प्रयोगों तक सीमित नहीं है, अपितु वे आधुनिक बोध, सामाजिक यथार्थ और मानवीय संघर्षों के बहुआयामी चित्रण के द्वारा एक नवीन काव्य संस्कार की सर्जना करते हैं। निराला हिंदी साहित्य में उन बिरले रचनाकारों में से हैं जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों में मौलिकता, प्रयोगशीलता, विद्रोही चेतना, मानवतावाद और आत्मदर्शन का अद्वितीय समन्वय मिलता है। वे परंपरा के भीतर से आधुनिकता का उद्घोष करते हैं और आधुनिकता को भारतीय सांस्कृतिक धरातल से जोड़ते हुए उसे गहराई प्रदान करते हैं। यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि निराला हिंदी कविता में एक नवीन काव्यधारा का प्रवर्तन करते हैं, जिसमें भाषा के स्तर पर खड़ी बोली की स्वीकृति, छंदों की बंदिशों से मुक्ति, मुक्त छंद की प्रतिष्ठा, नाद-संपदा की पुनर्व्याख्या और विषयवस्तु की दृष्टि से समाज-सापेक्ष चेतना का प्रसार हुआ। निराला की कविताएँ उनके समय की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विद्रूपताओं के प्रति केवल एक सजग निगाह ही नहीं प्रस्तुत करतीं, अपितु वे समय को उसके समग्र रूप में समझते और उसे अपनी कविता में आत्मसात करते हैं। ‘कुकुरमुत्ता’ जैसी कविता से लेकर ‘राम की शक्तिपूजा’, ‘वह तोड़ती पत्थर’, ‘सरोज-स्मृति’, ‘भिक्षुक’ और ‘जूही की कली’ तक की रचनाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि वे केवल एक भावुक कवि या आदर्शवादी विचारक नहीं, बल्कि एक यथार्थद्रष्टा, युग-संवेदनशील और क्रांतिकारी चेतना से ओतप्रोत कवि हैं।
निराला के काव्य में दृश्यात्मकता, गति और नाद-संपदा की जो सजीवता मिलती है, वह पूर्ववर्ती कवियों में प्रायः अनुपस्थित थी। वे प्रकृति के विविध रूपों को केवल भाव के स्तर पर नहीं, बल्कि संवेदना और प्रतीकों के द्वारा सशक्त रूप में प्रस्तुत करते हैं। उनके यहाँ जड़ वस्तुएँ भी एक सजीव, सप्राण उपस्थिति के रूप में दृश्य बन जाती हैं। ‘जूही की कली’ में प्रेम की कोमलता और ‘वह तोड़ती पत्थर’ में सामाजिक संघर्ष की जटिलता एक ही काव्य-संवेदना में घुलमिल कर सामने आती हैं। उनकी यह विशेषता कि वे प्रकृति, व्यक्ति और समाज के द्वंद्वात्मक संबंधों को एक ही रचनात्मक धरातल पर चित्रित करते हैं, उन्हें हिंदी कविता का अप्रतिम पुरोधा बनाती है। इसके साथ ही निराला की भाषा शैली में एक अद्भुत ओज और लय है, जो संस्कृतनिष्ठता के बावजूद पाठक के हृदय में सीधे उतरती है। वे दार्शनिक गहराई और भावनात्मक तीव्रता के साथ-साथ सामाजिक विडंबनाओं का जितना यथार्थ और संवेदनशील चित्रण करते हैं, उतना उस युग के अन्य कवियों में दुर्लभ है।
निराला की रचनाओं में एक स्पष्ट वैचारिक चेतना दिखाई देती है, जिसमें वे सामंती मूल्यों, पूंजीवाद, सामाजिक विषमता और रूढ़ियों के विरुद्ध खड़े होते हैं। विशेषतः ‘कुकुरमुत्ता’ कविता में उनका स्वर अत्यंत उग्र और व्यंग्यात्मक है, जहाँ पूँजीवाद की विकृतियों को चुटीले अंदाज में रेखांकित किया गया है। इस कविता में कुकुरमुत्ते का प्रतीक प्रयोग करके उन्होंने एक ओर जहाँ बाजारवादी संस्कृति और तथाकथित सभ्य वर्ग की कृत्रिमता पर प्रहार किया है, वहीं दूसरी ओर जीवन की मौलिकता, स्वतंत्रता और सहजता की पक्षधरता को भी प्रस्तुत किया है। ‘कुकुरमुत्ता’ निराला की प्रतिबद्धता का घोषणापत्र है, जहाँ वे किसी भी प्रकार की अन्यायपूर्ण व्यवस्था के विरुद्ध सशक्त प्रतिवाद करते हैं। इस कविता की भाषिक विशेषताएँ भी निराला की मौलिकता को रेखांकित करती हैं—वहाँ व्यंग्य है, कटाक्ष है, लेकिन साथ ही साथ करुणा भी है और मानवीयता की एक अंतःसलिला भी प्रवाहित होती है।
निराला का कवि व्यक्तित्व केवल युग-सापेक्ष नहीं, युग-स्रष्टा भी है। उन्होंने छायावाद के जिस भाव-बोध को जन्म दिया, वह केवल आत्मविमर्श या प्रकृति-रति तक सीमित नहीं था, अपितु उसमें आत्मा की पीड़ा, अस्तित्व का प्रश्न और समाज का यथार्थ एक साथ उद्घाटित होते हैं। छायावाद के चार प्रमुख स्तंभों—प्रसाद, पंत, महादेवी और निराला—में निराला सबसे अधिक यथार्थवादी और संघर्षशील चेतना के कवि हैं। वे छायावाद की भावुकता से आगे बढ़कर सामाजिक यथार्थ की परतें खोलते हैं। ‘वह तोड़ती पत्थर’ जैसी कविताएँ जहाँ श्रमशील नारियों की पीड़ा को चित्रित करती हैं, वहीं ‘भिक्षुक’ जैसी कविताएँ समाज की अमानवीय प्रवृत्तियों की ओर इशारा करती हैं। उन्होंने भाषा को केवल माध्यम नहीं, बल्कि स्वाभिमान और अभिव्यक्ति की शक्ति के रूप में प्रयुक्त किया है।
उनकी जीवन-दृष्टि भी अत्यंत व्यापक और मानवतावादी है। ‘सरोज-स्मृति’ जैसी कविता में जहाँ एक पिता की करुण पीड़ा है, वहीं उसमें जीवन-दर्शन की गहराई और मृत्यु के प्रति सांत्वना का भाव भी विद्यमान है। निराला अपने व्यक्तिगत जीवन के दुखों को भी समाज के व्यापक संदर्भ में देखते हैं और यही उनकी रचनात्मकता की शक्ति है। उन्होंने व्यक्तिगत अनुभवों को आत्ममुग्धता में नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना में रूपांतरित किया। यह बात उन्हें केवल एक कवि ही नहीं, एक द्रष्टा, समाजशास्त्री और क्रांतिकारी चिंतक के रूप में भी स्थापित करती है। उनके काव्य में भारतीय संस्कृति, वेद-पुराण, धर्म, समाज, राजनीति, दर्शन और व्यक्तिगत अनुभवों का ऐसा संश्लेष मिलता है जो हिंदी कविता को एक नया विस्तार देता है।
कहना न होगा कि निराला केवल भावों के कवि नहीं थे, वे विचारों के भी कवि थे। उन्होंने भाव और विचार दोनों को इस तरह से काव्य में ढाला कि उनकी कविताएँ केवल पढ़ी नहीं जातीं, अपितु पाठक के भीतर एक सजीव संवाद उत्पन्न करती हैं। वे काव्य को केवल सौंदर्य का साधन नहीं मानते, बल्कि उसे समाज परिवर्तन का माध्यम समझते हैं। इसी कारण उनकी कविताएँ शिल्प की दृष्टि से जितनी समृद्ध हैं, उतनी ही वैचारिक दृष्टि से भी सशक्त हैं। उनकी कविता में कल्पना है, भावनाएँ हैं, लेकिन साथ ही साथ उसमें प्रश्न है, प्रतिरोध है, क्रांति है। वे केवल व्यक्ति के नहीं, समूचे समाज के कवि हैं।
निराला की कविताएँ समय से संवाद करती हैं, समय को प्रश्नांकित करती हैं और समय की विसंगतियों के विरुद्ध संघर्ष का आह्वान करती हैं। वे भारतीय साहित्य में उस ध्रुवतारा की तरह हैं जो समय के बदलते प्रवाह में भी अपनी रोशनी से दिशा दिखाते हैं। आधुनिक हिंदी कविता में जब भी आत्म-समीक्षा, आत्मालोचन और आत्मदर्शन की आवश्यकता होती है, निराला की कविताएँ हमारे लिए मार्गदर्शक बन जाती हैं। उनकी रचनात्मकता ने हिंदी कविता को नई ऊँचाइयाँ प्रदान कीं और उसे लोक-संवेदना से जोड़ते हुए एक नया सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ भी दिया। युग चेतना, सामाजिक न्याय की आकांक्षा, मानवीय गरिमा की रक्षा और कलात्मकता की पराकाष्ठा—इन सबका समन्वय निराला की कविताओं में मिलता है।
इस प्रकार सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ आधुनिक हिंदी कविता के ऐसे शलाका पुरुष हैं, जिनकी कविताएँ केवल साहित्यिक उपलब्धियाँ नहीं, बल्कि सांस्कृतिक घोषणाएँ हैं। वे एक ऐसे कवि हैं जिनकी चेतना, कल्पना, संवेदना और वैचारिकता ने हिंदी कविता को केवल भाषा या छंद तक सीमित नहीं रखा, अपितु उसे एक सामाजिक और वैचारिक आंदोलन में परिवर्तित कर दिया। ‘कुकुरमुत्ता’ जैसी कविता के माध्यम से उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि कविता केवल सौंदर्यबोध की वस्तु नहीं है, बल्कि यह सामाजिक विद्रोह और आत्म-स्वतंत्रता की उद्घोषणा भी हो सकती है। वे संघर्ष के कवि हैं, करुणा के कवि हैं, सौंदर्य के कवि हैं और चेतना के भी कवि हैं। हिंदी साहित्य को यदि आधुनिकता के धरातल पर खड़ा करने वाले व्यक्तित्वों की सूची बनाई जाए तो निराला का नाम सबसे ऊपर होगा। वे केवल अपने युग की ही नहीं, आनेवाले समय की भी प्रेरणा हैं। उनकी कविता कालजयी है, क्योंकि उसमें युग की धड़कन और मानवता की पुकार दोनों समाहित हैं—और यही उन्हें अमर बनाती है।
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कालजयी रचना ‘राम की शक्ति पूजा’ हिंदी कविता में छायावादी युग का ऐसा महत्त्वपूर्ण मोड़ है, जहाँ से कविता का वैचारिक और शिल्पगत पुनर्निर्माण आरंभ होता है। यद्यपि इस कविता का आधार रामकथा है, जिसका मूल स्रोत वाल्मीकि की ‘रामायण’ और तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ है, परंतु निराला इसके माध्यम से एक अत्यंत आधुनिक, मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। ‘राम की शक्ति पूजा’ का प्रारंभ ही अपने गठन, गति और गहन प्रभाव से पाठक को स्तब्ध कर देता है। विशेषतः इसकी प्रथम अठारह पंक्तियाँ तो एक ऐसा बिंबात्मक विस्फोट हैं, जिसमें वाल्मीकि द्वारा विस्तृत सर्गों में कही गई भीषण युद्धकथा को मात्र कुछ सामासिक पदों और एकमात्र क्रियापद से इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है, मानो एक पूरा महाकाव्य एक ही क्षण में पाठक की चेतना में संचित हो जाता हो। इन पंक्तियों में नाटकीयता, भाषिक सौष्ठव, ध्वन्यात्मक प्रभाव और युद्ध के विकराल स्वरूप की जिस तीव्रता से कल्पना की गई है, वह हिंदी कविता में अभूतपूर्व है। यह कविता इस प्रकार प्रारंभ होती है— “लौटे युग-दल-राक्षस-पदतल पृथ्वी टलमल, बिंध महोल्लास से बार-बार आकाश विकल।” इस एक पंक्ति में ही निराला एक भीषण युद्ध-दृश्य की संरचना कर देते हैं, जिसमें आकाश भी धरती की तरह काँपने लगता है, और राक्षसी सैन्यबल के पदाघात से पृथ्वी डगमगाने लगती है। यह दृश्य मानवीय चेतना को झकझोरने वाला है। कविता का प्रारंभ एक वाचक की भूमिका से होता है, जो कि एक प्रकार से संस्कृत नाटकों में प्रयोजित ‘सूत्रधार’ का पुनराविष्कार है, और पाठक को कथा में प्रवेश कराता है।
इन प्रारंभिक 18 पंक्तियों में सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि इनमें केवल एक क्रियापद प्रयुक्त हुआ है, जबकि शेष सभी पद सामासिक हैं, और इतने विस्तृत व शक्तिशाली हैं कि उनमें समूचे युद्ध की भीषणता, वीरता, उन्माद, चीत्कार, आर्तनाद, रणनिनाद, अस्त्र-शस्त्रों की टंकार, रक्तरंजित भूमि, आकाश की दहाड़, और देवताओं के आश्चर्य तक को समाहित कर दिया गया है। यह शैली निराला की भाषिक क्षमता की पराकाष्ठा को दर्शाती है। ‘युग-दल-राक्षस-पदतल’ जैसा संयोजन न केवल ध्वनि की दृष्टि से प्रभावशाली है, बल्कि दृश्यात्मकता और अर्थ-सघनता के स्तर पर भी अपूर्व है। इस प्रकार के ‘बहुसमासयुक्त पद’ (compound-heavy expressions) निराला की विशिष्ट काव्यभाषा का उदाहरण हैं, जो संस्कृत तथा बांग्ला भाषा से प्रेरित है और हिंदी को एक अभूतपूर्व लालित्य और शक्ति प्रदान करती है। यहाँ युद्ध का वर्णन केवल एक सूचना नहीं, बल्कि एक संवेदनात्मक अनुभव है। यह पंक्तियाँ कवि की उस सर्जनात्मक प्रयोगधर्मिता का प्रमाण हैं जिसमें वे पारंपरिक कथा को आधुनिक काव्य के उपकरणों से पुनर्रचना करते हैं।
यहाँ युद्ध का चित्रण केवल बाह्य क्रिया नहीं है, बल्कि यह युद्ध एक आध्यात्मिक संघर्ष का भी प्रतीक बन जाता है। "रण-भेरी-क्रुद्ध-भीषण-ध्वनि-सम-सिंहनाद" जैसी पंक्ति न केवल ध्वन्यात्मक अनुगूँज उत्पन्न करती है, बल्कि एक प्रकार की श्रव्य कविता की भाँति पाठक के मन में सीधे उतरती है। ध्वनि और अर्थ का यह विलक्षण सामंजस्य निराला की कवित्व-प्रतिभा का जीवंत प्रमाण है। इतना ही नहीं, इन पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार, जैसे यमक, अनुप्रास, चित्रात्मकता, और रूपक, कविता को इतना सघन बना देते हैं कि प्रत्येक पंक्ति अपने भीतर एक दृश्य, एक संवेदना, और एक विचार को समेटे रहती है। निराला यहाँ ‘कविता’ नहीं लिख रहे, वे एक ‘काव्य-युद्ध’ की सृष्टि कर रहे हैं, जिसमें भाषा स्वयं युद्धभूमि बन जाती है और शब्द अस्त्रशस्त्र।
उल्लेखनीय है कि इन पंक्तियों में प्रयुक्त प्रत्येक सामासिक पद एक गूढ़ यथार्थ को उद्घाटित करता है। उदाहरण के लिए, “प्राण-ध्वंस-यंत्रणा-संकुल-त्रास-आहत-गर्जन-गर्जन” पंक्ति को लें तो यहाँ युद्ध केवल बाह्य परिघटना नहीं, बल्कि जीवन-नाशक तंत्र की छवि प्रस्तुत करता है, जो केवल युद्ध की भयावहता नहीं, बल्कि उस युद्ध से उत्पन्न सामाजिक, नैतिक और मानसिक संताप को भी दिखाता है। इस युद्ध में देवता, मनुष्य, प्रकृति, सभी सम्मिलित हैं, और पूरा ब्रह्मांड इस यथार्थ से प्रतिध्वनित हो रहा है। यही कारण है कि निराला इस युद्ध को केवल राम और रावण के संघर्ष तक सीमित नहीं रखते, बल्कि इसे धर्म और अधर्म, शक्ति और चेतना, भाव और बुद्धि, आत्मा और प्रकृति के द्वंद्व के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
इसी द्वंद्वात्मक चेतना के आलोक में ‘राम की शक्ति पूजा’ की ये अठारह पंक्तियाँ पाठक के मन-मस्तिष्क में एक गूढ़ प्रश्न भी उपस्थित करती हैं—क्या यह युद्ध केवल बाह्य शत्रु से है, या आत्म के भीतर छिपे संशय, अहंकार, मोह और भ्रम से भी है? निराला ने यहाँ न केवल शैली का नवाचार किया है, बल्कि कथा के प्रतीकों का भी पुनरर्थकरण किया है। ये प्रारंभिक पंक्तियाँ स्वयं में एक काव्यात्मक प्रस्थान-बिंदु हैं, जिनसे पूरी कविता की वैचारिक यात्रा प्रारंभ होती है।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि इन पंक्तियों में कोई विशेष व्यक्तिगत भाव या आत्मकथ्य नहीं है, परंतु इसके बावजूद उनमें इतनी व्यापकता है कि वे समस्त मानवता के संघर्ष, पीड़ा और विजय के प्रतीक बन जाती हैं। निराला का यह प्रयोग केवल छायावादी सूक्ष्म भावलोक से बाहर आकर सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतिरोध की भूमिका निभाता है। युद्ध की भव्यता, भयावहता, उग्रता, और व्यापकता—इन सबको एक साथ समेटने की यह अभिव्यक्ति शैली हिंदी कविता में अत्यंत दुर्लभ है।
संक्षेप में, ‘राम की शक्ति पूजा’ की प्रथम अठारह पंक्तियाँ न केवल निराला की भाषिक नवोन्मेष की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, बल्कि वे हिंदी कविता के इतिहास में युद्ध वर्णन की एक आदर्श प्रस्तुति भी हैं। जहाँ अन्य कवियों को यह कहने के लिए सैकड़ों पंक्तियाँ लगतीं, वहाँ निराला केवल अठारह पंक्तियों में उस युद्ध की ध्वनि, गंध, गति, रंग, भय और आक्रोश को समेट देते हैं। यह उनकी काव्य दृष्टि, भाषिक सामर्थ्य और सांस्कृतिक अनुभव की गहराई का प्रतीक है। ये पंक्तियाँ केवल एक नाटकीय आरंभ नहीं, बल्कि काव्य की आत्मा हैं—वहाँ से राम का आत्मसंघर्ष, संशय, शक्ति का वरण और आध्यात्मिक विजय की यात्रा शुरू होती है। इन पंक्तियों के माध्यम से निराला ने यह सिद्ध कर दिया कि कविता न केवल अनुभूति की भाषा है, बल्कि वह शक्ति, संकल्प और संस्कार का वाहक भी हो सकती है। यही कारण है कि ‘राम की शक्ति पूजा’ की यह भूमिका पाठक को बाँध लेती है और एक व्यापक काव्य-यात्रा की ओर आमंत्रित करती है, जिसमें शब्द स्वयं ब्रह्म बनकर प्रकट होते हैं।
"राम की शक्ति पूजा" के एक अत्यंत महत्वपूर्ण, अत्यंत बिंबात्मक और सांकेतिक पदांश "रवि हुआ अस्त" को जब हम सतही स्तर से ऊपर उठकर विश्लेषित करते हैं, तो यह पंक्ति केवल एक प्राकृतिक घटना—सूर्यास्त—का उल्लेख नहीं रह जाती, बल्कि यह अपने भीतर कई ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक और राजनीतिक परतें समेटे हुए एक अत्यंत गहन बिंब में परिवर्तित हो जाती है। निराला की काव्य-संवेदना और प्रतीकबोध इतनी उन्नत और बहुआयामी है कि “रवि हुआ अस्त” के माध्यम से वे केवल एक दृश्य नहीं रचते, बल्कि एक कालबोध, एक संघर्ष, एक चेतना, और एक आशंका की रचना करते हैं। प्रथम दृष्टि में यह दृश्यात्मक बिंब है—संध्या की बेला है, सूर्य अस्त हो चुका है, चारों ओर अंधकार फैलने लगा है, दिन का युद्ध समाप्त हो गया है, दोनों सेनाएँ अपने शिविरों में लौट चुकी हैं। परंतु यह दृश्य केवल एक रचना-सौंदर्य नहीं है, बल्कि इसके भीतर युद्ध, पराजय, शक्ति, भय, आत्ममंथन और नेतृत्व के संकट का प्रतीकात्मक चित्र भी सन्निहित है। यहाँ सूर्य केवल खगोलीय वस्तु नहीं है, बल्कि वह राम का प्रतीक है—राम जो सूर्यवंशी हैं, राम जो धर्म के प्रतिनिधि हैं, राम जो यथार्थ के आलोक हैं। जैसे ही वह रवि अस्त होता है, लगता है जैसे धर्म का सूर्य डूब रहा है, जैसे नीति, न्याय और मर्यादा की रोशनी पराजय के अंधकार में विलीन होने वाली है। यह दृश्य उस क्षण को रेखांकित करता है जब राम स्वयं आत्मसंशय से भर उठते हैं, जब उन्हें लगता है कि शक्ति उनके विरुद्ध है, और उनकी विजय संभव नहीं।
इस प्रतीक में दूसरा गहरा आशय है—राम की हार, सूर्यवंश का अस्तित्व संकट में, अर्थात् ‘रवि हुआ अस्त’ का यह अर्थ भी है कि राम की पराजय केवल एक योद्धा की हार नहीं है, बल्कि यह सूर्यवंश की गौरवशाली परंपरा, उसकी प्रतिष्ठा, उसके धर्मबोध, और उसकी नैतिक सत्ता के ह्रास का संकेत है। चूँकि राम सूर्यवंशी हैं, अतः उनका हारना सूर्य के अस्त होने जैसा है। यह केवल एक युद्ध का क्षण नहीं, बल्कि सभ्यता, संस्कृति, और मूल्य-व्यवस्था की एक निर्णायक घड़ी है। शक्ति—जो कि दैवी है, प्रकृति है, चैतन्य है, उर्जा है—यदि वह राम के पक्ष में नहीं आती, तो राम का अस्तित्व और उनका धर्म, दोनों ही नष्ट हो सकते हैं। यही कारण है कि यह क्षण केवल भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और ब्रह्मांडीय संकट का भी बिंब प्रस्तुत करता है। ‘रवि हुआ अस्त’ इस समग्र संकट की सूचक पंक्ति है—एक छोटे-से पद में इतना गहन अर्थ-विस्तार किसी कुशल काव्यकार की ही क्षमता हो सकती है।
तीसरे स्तर पर, निराला की यह पंक्ति एक राजनीतिक प्रतीक बन जाती है। निराला का युग भारत के स्वतंत्रता संग्राम का युग है। यह वह समय है जब महात्मा गांधी के नेतृत्व में पूरा देश स्वतंत्रता की ओर बढ़ रहा था। निराला गांधी से मतभेद रखते हुए भी उनके कर्तृत्व से अत्यंत प्रभावित थे। वह उन्हें भारतीय जीवनमूल्यों, नैतिक बल और संघर्षशीलता का मूर्तिमान रूप मानते थे। निराला के लिए गांधी ठीक वैसे ही थे जैसे राम—जनसामान्य के बीच का नेतृत्वकर्ता, शोषितों और वंचितों को साथ लेकर चलने वाला, मर्यादा और न्याय के लिए अहिंसा का ध्वजवाहक। गांधी ने जैसे हरिजनों, स्त्रियों, गरीबों, किसानों, मजदूरों, बुनकरों और आदिवासियों को स्वाधीनता आंदोलन में जोड़ा, वह राम के उस कार्य की स्मृति दिलाता है जब वे वानर, रीछ, भालू, और शबरी-जैसे वंचितों को साथ लेकर रावण जैसे साम्राज्यवादी सत्ता का सामना करते हैं। ऐसे में जब गांधी ने किसी आंदोलन को किसी रणनीतिक कारण से स्थगित किया, विशेषकर चौरी-चौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन को वापस लिया, तो निराला जैसे संवेदनशील कवि को वह एक गहरा नैतिक झटका लगा। उन्हें लगा कि जैसे सत्य का सूर्य डूब गया, जैसे राम स्वयं पीछे हट गए हों—और इस भाव में उनके भीतर यह बिंब जन्म लेता है—‘रवि हुआ अस्त’।
यह कहना भी उचित होगा कि इस एक पंक्ति में निराला राम, सूर्य, धर्म, शक्ति और गांधी—इन सभी को एक ही प्रतीकवृत्त में बाँध देते हैं। यह प्रतीक संघर्ष की चरम स्थिति को दिखाता है जहाँ धर्म के मार्ग पर चलने वाला नायक पराजय की ओर बढ़ता दिखता है, और उसका आत्मबल डगमगाने लगता है। यहाँ निराला केवल एक पौराणिक प्रसंग नहीं कह रहे, वे मानो समकालीन यथार्थ को प्राचीन प्रतीकों में बाँधकर एक कालातीत सत्य प्रस्तुत कर रहे हैं। इस अर्थ में ‘रवि हुआ अस्त’ केवल एक कविता की पंक्ति नहीं, बल्कि एक सभ्यता के संक्रमण बिंदु की घोषणा बन जाती है।
लेकिन इस अंधकार के भीतर भी प्रकाश का एक बीज छिपा हुआ है। यही निराला की कविता की शक्ति है कि वह केवल संकट को नहीं दिखाती, बल्कि संकट में भी संभावना की खोज करती है। जिस क्षण राम संशयग्रस्त हैं, उस क्षण भी "गर्ज्जित-प्रलयाब्धि-क्षुब्ध हनुमत्-केवल प्रबोध" पंक्ति सामने आती है, जहाँ हनुमान की चेतना, उसकी निःस्वार्थ भक्ति, उसका संकल्प और संघर्ष, एक प्रकाश की किरण बनकर उभरता है। हनुमान यहाँ केवल राम का सेवक नहीं, बल्कि मानवता की आशा का प्रतीक बनते हैं। इस भाव का संकेत यह है कि चाहे रवि अस्त हो गया हो, अंधकार फैल गया हो, परंतु प्रबोध और भक्ति के माध्यम से फिर से शक्ति की प्राप्ति हो सकती है, और अंधकार में भी उजाले की राह ढूँढी जा सकती है।
अतः “रवि हुआ अस्त” को जब हम उसकी संपूर्ण गहराई में समझते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह केवल एक काव्यात्मक सूक्ति नहीं, बल्कि एक बहुस्तरीय प्रतीक है जो समय, सत्ता, धर्म, समाज और व्यक्ति की समूची द्वंद्वात्मकता को एक साथ समेट लेता है। यह एक चेतावनी भी है, एक अवरोध भी है, और एक आह्वान भी—कि जब नेतृत्व डगमगाता है, जब धर्म संशयग्रस्त होता है, जब शक्ति विचलित होती है, तो हनुमान जैसे चरित्रों की आवश्यकता होती है जो प्रबुद्ध होकर पुनः शक्ति को पुकारें, और धर्म के सूर्य को फिर से उदित करें। यह पंक्ति केवल निराला के युग की नहीं, बल्कि हर उस युग की सत्य घोषणा है जहाँ अंधकार घना होता है और प्रकाश कहीं छिप जाता है। इसलिए “रवि हुआ अस्त” केवल राम की हार का चित्र नहीं, बल्कि प्रत्येक युग में आत्मबल, विवेक और नेतृत्व के संकट की चेतावनी भी है—और यह इसी कारण एक संपूर्ण काव्यात्मक बिंब है, अपने आप में पूर्ण, गहन, सार्वकालिक और सार्वभौमिक।
‘राम की शक्ति पूजा’ केवल एक पौराणिक आख्यान या धार्मिक काव्य नहीं है, बल्कि यह एक बहुस्तरीय काव्यात्मक चेतना का ऐसा विराट स्तम्भ है, जिसमें व्यक्तिगत पीड़ा, सांस्कृतिक प्रतीक, सामाजिक द्वंद्व और दार्शनिक जिजीविषा एक साथ समाहित हैं। इस रचना के केंद्र में भले ही राम हों, लेकिन यह राम उस परंपरागत अवतारी स्वरूप में नहीं हैं, जिस स्वरूप में तुलसीदास या कृत्तिवास राम को प्रस्तुत करते हैं। तुलसी के राम ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ हैं—आदर्श का मूर्त रूप, जबकि कृत्तिवास के राम अनेक बार अपनी सीमाओं में जकड़े, व्याकुल और बेबस दिखाई देते हैं। निराला ने इन दोनों ध्रुवों से अलग हटकर एक तीसरे प्रकार के राम को प्रस्तुत किया—मनुष्य राम, जो संशय, अवसाद और आत्मसंघर्ष से गुजरता है, लेकिन अंततः अपनी चेतना और प्रयासों से विजय की ओर अग्रसर होता है। यह राम किसी चमत्कार या दैवी कृपा से नहीं, बल्कि अपनी मानसिक शक्ति, आत्मबल, विवेक और सहस्र संघर्षों के बल पर शक्ति की उपासना करता है, उसे प्राप्त करता है और अधर्म पर विजय प्राप्त करता है।
‘राम की शक्ति पूजा’ की पृष्ठभूमि में यदि हम निराला के निजी जीवन को देखें तो यह कविता केवल एक युगचेतना का दस्तावेज नहीं, बल्कि एक आत्मसंघर्ष की यथार्थ परिणति भी है। निराला का जीवन गहन दुखों, वियोग, अभावों और टूटते संबंधों से भरा था। एक-एक कर उन्होंने अपने पूरे परिवार को खोया—पत्नी, पुत्री, पुत्र—सब कुछ उनसे छिन गया। जीवन में यदि कुछ शेष रहा तो वह था निरंतर संघर्ष और अकेलापन। यह अकेलापन केवल सामाजिक नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक भी था। ऐसे अंधकारमय जीवन क्षणों में निराला ने जो आत्मबल, आत्मसंघर्ष और जीवन-दृष्टि का परिचय दिया, वही इस कविता में रूपांतरित होकर हमारे सामने आता है। अतः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि ‘राम की शक्ति पूजा’ उनके जीवन की ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ है, जो एक टूटे हुए मानव के भीतर की उस ऊर्जा की खोज है जो उसे फिर से उठ खड़ा होने की शक्ति देती है। उन्होंने स्वयं लिखा—“शक्ति की करो मौलिक कल्पना।” यह केवल एक पंक्ति नहीं, बल्कि उनके संपूर्ण जीवन और काव्य दृष्टि का घोषवाक्य है।
निराला के राम कोई आदर्श गाथा नहीं सुनाते, वे हमारी तरह संकटों में घिरे हुए मनुष्य हैं, जिन्हें जीवन की लड़ाई में संदेह, आत्मदोष, अकेलापन और आस्था की विफलता से जूझना पड़ता है। वे राम शक्ति की उपासना करते हैं, क्योंकि उनके पास अब कोई मार्ग नहीं बचा। यहाँ राम का पूजा करना एक दैवी अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक संघर्ष है, जो व्यक्ति अपने आत्मिक अंधकार में करता है। निराला इस राम को चुनते हैं क्योंकि उनके लिए राम और कृष्ण केवल मिथकीय पात्र नहीं, बल्कि आधुनिक सामाजिक आदर्शों की तलाश के दो प्रमुख नाम हैं। डॉ. नंददुलारे वाजपेयी के अनुसार—“उनके सम्मुख कोई बने बनाए आदर्श या नपे-तुले प्रतिमान न थे... राम और कृष्ण उनके सर्वाधिक समीपी और परिचित नाम थे, अतएव इन्हीं चरित्रों को उन्होंने अपने नए सामाजिक आदर्शों की अनुरूपता देने की ठानी।” इस कथन से स्पष्ट होता है कि निराला का राम अवतारी राम नहीं, बल्कि संदेहग्रस्त मानव राम है, जो हार और हताशा से टूटने की बजाय शक्ति की उपासना द्वारा पुनर्जीवित होता है।
इस नवीन राम की मनोदशा को निराला अत्यंत संवेदनशीलता और सूक्ष्मता से चित्रित करते हैं। जब राम सभा में बैठे हैं और शक्ति की ओर से पराजय का बोझ उनके कंधों पर है, तब उनके नयन स्तब्ध हैं, शब्द निष्प्रभ हो चुके हैं। निराला लिखते हैं—“जब सभा रही निस्तब्धः राम के स्तिमित नयन / छोड़ते हुए, शीतल प्रकाश खाते विमन / जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव / उसमें न इन्हें कुछ चाव, न कोई दुराव।” यह केवल राजनैतिक पराजय की नहीं, बल्कि भीतर के आत्मबल की पराजय की छवि है। निराला का राम अब भी पूर्ण मनुष्य है, जो संघर्ष करता है, गिरता है, किंतु अपने भीतर के एक ‘अथक मन’ के कारण कभी नहीं थमता—“एक और मन रहा राम का, जो न थका।” यही पंक्ति इस पूरे काव्य का नाभिक है, जो निराला के जीवन, दर्शन और उनकी कविता तीनों का केंद्र बन जाती है।
इसीलिए ‘राम नाम’ का प्रयोग भी यहाँ एक विचारशील काव्यगत रणनीति है। भले ही मध्यकालीन संतों और भक्त कवियों ने राम को ईश्वर, अवतार, मुक्तिदाता और सगुण ब्रह्म के रूप में प्रतिष्ठित किया हो, लेकिन निराला का राम उन प्रतिमानों से हटकर समकालीन मानव की छवि में ढल जाता है। उनके राम भी इस युग के हैं—संघर्ष करते हुए, संशय में डूबे हुए, शक्ति की खोज में भटकते हुए। निराला उन्हें इसलिए चुनते हैं क्योंकि वे राम को ‘मूल्य का प्रतिक’ बनाना चाहते हैं—न कि चमत्कारी देवता। राम का नाम भले ही पारंपरिक हो, किंतु निराला ने उसकी भावार्थ की दिशा बदल दी। इसीलिए ‘राम’ उनके यहाँ न केवल धार्मिक प्रतीक हैं, बल्कि आदर्श मनुष्य की मानसिक और आत्मिक यात्रा के प्रतीक भी हैं।
इस पूरी रचना में ‘शक्ति’ ही वह तत्व है जो मानव को उसकी असहायता, निर्बलता, संशय और अवसाद से बाहर निकालने का साधन बनती है। राम का शक्ति की पूजा करना, उनके मानसिक और आत्मिक विकास का सूचक है। इस शक्ति को निराला ‘मौलिक कल्पना’ कहते हैं—अर्थात एक ऐसी चेतना जो भीतर से प्रस्फुटित हो, जो न तो परंपरा की देन हो, न ही रूढ़ियों की। यह शक्ति एक विचार है, एक चेतना है, एक साहस है—और वही शक्ति उनके लिए, राम के लिए और समस्त मानवता के लिए संकट में पड़ी अस्त होती हुई ‘रवि’ की ज्योति को पुनः उदित करने का माध्यम है। यही कारण है कि यह कविता निराला के व्यक्तिगत जीवन की पीड़ा, सामाजिक यथार्थ की विडंबना, और मानवीय संघर्ष की असाधारण गाथा बन जाती है।
इस प्रकार, ‘राम की शक्ति पूजा’ की पृष्ठभूमि में जब हम ‘रवि हुआ अस्त’ और ‘राम-नाम’ को साथ-साथ रखते हैं तो स्पष्ट होता है कि निराला ने इस कविता के माध्यम से अपने जीवन, युग और साहित्यिक परंपरा तीनों को एक नवीन दृष्टि से व्याख्यायित किया है। यह राम परंपरा से कटते नहीं, बल्कि परंपरा को पुनःमानवीकरण करके आधुनिक मनुष्य के लिए उपयोगी बनाते हैं। निराला का राम जब शक्ति की तलाश में स्वयं को समर्पित करता है, तो वह निराला का ही प्रतिबिंब बन जाता है—एक कवि जो सब कुछ खोकर भी पुनः कविता के माध्यम से शक्ति की खोज करता है और कहता है—“शक्ति की करो मौलिक कल्पना।” यही वह बिंदु है जहाँ राम और निराला एकाकार हो जाते हैं, और कविता एक दार्शनिक उद्घोषणा बन जाती है—मानव के आत्म-संघर्ष की, अंधकार से प्रकाश की, और परंपरा से नव्यता की।
यह वह समय था जब प्रथम विश्वयुद्ध की विभीषिकाएँ मानवता को अंदर तक हिला चुकी थीं; समस्त विश्व नैतिक संकट, आत्मसंशय, साम्राज्यवादी युद्धों और राजनीतिक अस्थिरताओं से जूझ रहा था। भारत में स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था और देश की चेतना किसी एक आदर्श, संबल या शक्ति की तलाश में थी। ठीक इसी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में निराला की यह कविता केवल एक पौराणिक आख्यान की पुनर्रचना नहीं, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक गाथा, एक दार्शनिक आत्मसंघर्ष और एक युगबोध से अनुप्राणित आधुनिक काव्य बनकर उभरती है।
इस कविता में निराला ने राम को जिस रूप में चित्रित किया है, वह अत्यंत मानवीय है—निराला के राम न तो पारंपरिक रूप से मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, न ही चमत्कारी अवतार; वे संघर्षशील, संशयग्रस्त, भावुक, विवश, विवेकशील और भीतर ही भीतर टूटता हुआ मनुष्य हैं, जो किसी दैवी कृपा से नहीं, बल्कि आत्मबल और शक्ति-साधना से आगे बढ़ते हैं। निराला इस राम को युद्ध के मध्य खड़ा करते हैं, जहाँ उनका बाह्य संघर्ष रावण की सेना से है, लेकिन उससे भी बड़ा संघर्ष उनके भीतर चल रहा है—संशय और आत्मसंघर्ष का संघर्ष, जो कविता की मनोवैज्ञानिक भूमि को गहराई और यथार्थ से संपन्न करता है। जैसे पंक्तियाँ हैं—
"स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय,
रह रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय"
इन दो पंक्तियों में राम की वह आंतरिक हलचल प्रकट होती है जो युद्ध के यथार्थ से उत्पन्न होती है। यहाँ ‘संशय’ केवल एक मानसिक स्थिति नहीं, बल्कि राम के संपूर्ण अस्तित्व को हिलाने वाला तत्व बन जाता है। राम, जो ‘स्थिर राघवेन्द्र’ हैं, उनका भी धैर्य डगमगाने लगता है। यह केवल राम का संकट नहीं, बल्कि उस कालखंड का भी प्रतीक है, जहाँ सत्य, नीति और धर्म को लेकर स्वयं नेतृत्व संशय में था—चाहे वह गांधी हों, टैगोर हों या कोई और विचारशील आत्मा।
इसी क्रम में अगली पंक्तियाँ और भी गहरे मनोविज्ञान को उभारती हैं—
"कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार-बार,
असमर्थ मानता मन, उद्यत हो हार-हार।"
यह राम केवल एक योद्धा नहीं, बल्कि एक संवेदनशील विचारक है, जिसे अपनी पराजय का आभास हो रहा है और जो उस पराजय को मानसिक रूप से स्वीकारने को बाध्य हो रहा है। यह स्थिति केवल युद्ध की नहीं, बल्कि स्वयं के अस्तित्व से जूझने की स्थिति है, जहाँ विजय की अपेक्षा हार का भय अधिक स्पष्ट है। युद्ध केवल बाहरी दुश्मन से नहीं, बल्कि आत्मा की संकल्पहीनता से भी हो रहा है।
इस मानसिक स्थिति को और अधिक मानवीय बनाते हैं वे क्षण जब राम की आँखों से आँसू गिरते हैं—
"भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल,"
यह चित्र राम को पूरी तरह मानव बना देता है। ऐसा चित्र तुलसीदास या कृत्तिवास की रामकथाओं में दुर्लभ है। यह वह क्षण है जब राम अपने भावों के आवेग में स्वयं को रो नहीं पाते और उनकी आंखों से आंसू बह निकलते हैं। यह आंसू केवल व्यक्तिगत हार या करुणा का प्रतीक नहीं, बल्कि वह भावनात्मक दबाव है जो एक उत्तरदायी नायक के कंधों पर युद्ध, नीति और नेतृत्व के बोझ के रूप में पड़ता है।
इसी मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण की पुष्टि तब होती है जब वे रघुपति लक्ष्मण से कहते हैं—
"बोले रघुमणि—'मित्रवर, विजय होगी न समर',"
यह वाक्य उस चरम संशय का प्रतीक है जहाँ स्वयं राम को यह लगता है कि विजय असंभव है। यह राम किसी दैवी चमत्कार पर निर्भर नहीं रहते, बल्कि यथार्थ की कठोर भूमि पर खड़े होते हैं। आगे जब वे कहते हैं—
"अन्याय जिधर, हे उधर शक्ति!" कहते छल-छल
हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल,"
तो यह स्थिति वह चरम मानवीय निरीहता है जहाँ एक नायक अपने पूरे साहस के साथ अस्वीकार करता है कि शक्ति केवल उसके पक्ष में हो सकती है; वह स्वीकार करता है कि शक्ति अन्याय के साथ भी जा सकती है। यही वह क्षण है जहाँ राम केवल राम नहीं रहते, वे उस मनुष्य का रूप धारण करते हैं जो अपने विवेक, भावनाओं और अंतर्द्वंद्व से जूझ रहा है—और वहीं यह कविता महज पौराणिक आख्यान न रहकर एक समकालीन यथार्थ का बिंब बन जाती है।
यह भी स्मरणीय है कि निराला की यह रचना बंगला साहित्य के कृतिवास रामायण से प्रेरित होकर लिखी गई है, किंतु वह प्रेरणा केवल कथा तक सीमित है। कृतिवास की रामायण जहाँ शुद्ध पौराणिकता और नैतिक द्वैत पर आधारित है, वहीं निराला की यह रचना अर्थ की बहुस्तरीयता को स्पर्श करती है। निराला राम के माध्यम से केवल युद्ध नहीं दिखाते, बल्कि आत्मबल की अनुपस्थिति, नेतृत्व की विफलता, प्रशासनिक असमर्थता, और सामाजिक शक्ति के प्रश्न को केंद्र में लाते हैं। राम यदि हारे हैं, तो इसलिए नहीं कि वे बलहीन हैं, बल्कि इसलिए कि उनकी शक्ति उनसे रूठ गई है—यानी मूल्य, साहस और सामाजिक समर्थन ने उनका साथ छोड़ दिया है। यही चेतना इस रचना को केवल मनोवैज्ञानिक नहीं, बल्कि राजनीतिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक स्तर पर भी प्रासंगिक बनाती है।
इस पूरी संरचना में निराला केवल राम के मानसिक संघर्ष को चित्रित नहीं करते, बल्कि मानव समाज के उस युगीन संकट को भी रूपायित करते हैं, जिसमें अधर्म, छल, अन्याय और भौतिक बल को शक्ति प्राप्त होती जा रही है, और धर्म, सत्य, नैतिकता और करुणा का प्रतिनिधित्व करने वाले नायक शक्तिहीन हो जाते हैं। अतः यह काव्य रचना केवल एक ‘शक्ति पूजा’ नहीं, बल्कि आत्मा की जिजीविषा, संघर्ष की पुकार और चेतना की पुनर्प्राप्ति का घोष है।‘राम की शक्ति पूजा’ का यह मनोवैज्ञानिक पक्ष ही उसे बंगला रामकथा की परंपरागत सपाटता से पृथक करता है और उसे आधुनिक हिंदी कविता की सबसे विचारोत्तेजक एवं बहुआयामी रचना बना देता है। निराला के राम नायक हैं, परंतु वे सिद्ध नहीं, साधक हैं; वे पूज्य नहीं, प्रेरक हैं; वे ईश्वर नहीं, मानव हैं—और यही उनकी सबसे बड़ी शक्ति है, जो इस कविता को कालजयी बनाती है।
यह कविता एक सशक्त नाटकीय दृष्टिकोण, सांस्कृतिक पुनर्व्याख्या और आधुनिक काव्य चेतना का दुर्लभ उदाहरण है। इस कविता में निराला ने जिस मौलिकता और कल्पनाशीलता का परिचय दिया है, वह हिंदी काव्य-परंपरा में अप्रतिम है। जहाँ पूर्ववर्ती कवियों ने पौराणिक कथाओं का अनुकरण करते हुए केवल धार्मिक श्रद्धा और नैतिक उपदेशों को दोहराया, वहीं निराला ने उसमें आधुनिक दृष्टि, मनोवैज्ञानिक गहराई और नाटकीय प्रवाह भरकर उसे कालजयी बना दिया। इस रचना में सबसे विशिष्ट जो पक्ष उभरकर सामने आता है, वह है — नाटकीयता का प्रभावशाली प्रयोग, जो न केवल कथा को गतिशील बनाता है, बल्कि पाठक को भीतर से आंदोलित कर देता है। विशेषकर हनुमान प्रसंग में नाटकीयता अपनी चरम सीमा पर है — जहाँ एक ओर राम संशय, आत्मविमर्श और हताशा से जूझ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर हनुमान उस प्रचंडता, वेग और चेतना का प्रतीक बनकर उभरते हैं, जो संकट की घड़ी में नवप्रकाश बनकर सामने आता है। यह हनुमान कोई दूत मात्र नहीं हैं, बल्कि पूरे दृश्य को गति, ऊर्जा और आशा से भर देते हैं। कविता का यह दृश्य किसी रंगमंचीय नाटक की भांति सामने आता है—गर्जन करता हुआ, विचलित करता हुआ और चेतना को झकझोरता हुआ।
निराला ने जिस प्रकार इस दृश्य में गति, ध्वनि और दृश्यात्मकता को समेटा है, वह उन्हें एक सफल नाट्य-कवि के रूप में प्रस्तुत करता है। पंक्तियाँ—
“वारित-सौमित्र-भल्लपति-अगणित-मल्ल-रोध,
गर्ज्जित-प्रलयाब्धि-क्षुब्ध-हनुमत्-केवल-प्रबोध”
— केवल कविता नहीं, बल्कि ध्वनि और गति का दृश्यात्मक अनुभव है, जहाँ शब्दों की गूंज और छंद की लय पाठक को युद्धभूमि के केंद्र में पहुँचा देती है। यह नाटकीयता केवल काव्य-सौंदर्य तक सीमित नहीं रहती, बल्कि यह चेतना का आवाहन बन जाती है—एक हताश युग में आशा और शक्ति के पुनर्जागरण का प्रतीक। इसी नाटकीयता के भीतर राम का आत्मसंघर्ष, शक्ति की पूजा, हनुमान की प्रचंडता और अंततः विजय की ओर अग्रसर प्रयासों की पूरी प्रक्रिया क्रमिक रूप से विकसित होती है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि निराला ने नाटकीय संरचना को भावनात्मक और वैचारिक प्रवाह के साथ अद्वितीय ढंग से जोड़ा है।
निराला की मौलिकता केवल नाटकीयता तक सीमित नहीं रहती, बल्कि उन्होंने प्रकृति-चित्रण में भी रीतिकालीन परंपरा को पूरी तरह तोड़कर उसे एक शक्ति-संपन्न, चेतनात्मक और सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया है। रीतिकालीन कवियों ने जहाँ प्रकृति को रमणीयता, श्रृंगार और नारी सौंदर्य का प्रतीक माना, वहीं निराला ने उसे शक्ति, साहस और जाग्रत चेतना का मूर्त रूप बनाया। विशेषकर ‘भूधर’ के चित्रण में यह दृष्टिकोण स्पष्ट है—
“सामने स्थिर जो यह भूधर
शोभित-शर-शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुन्दर
पार्वती कल्पना है इसकी, मकरन्द-बिन्दु,
गरजता चरण-प्रान्त पर सिंह, वह नहीं सिन्धु
दशदिक समस्त है हस्त।”
यहाँ भूधर कोई स्थिर और निर्जीव प्राकृतिक वस्तु नहीं, बल्कि पार्वती की कल्पना है—शक्ति का मूर्त रूप, जो समस्त दिशाओं को अपने हाथों में लिए हुए विराट रूप में प्रकट होती है। यह प्रकृति अब कामनीय नहीं, बल्कि कर्मशील, बलशाली और दैवी ऊर्जा का प्रतीक है। यह परिवर्तन हिंदी कविता की प्रकृति-दृष्टि में एक क्रांतिकारी मोड़ है, जिसे निराला ने स्त्री रूप में शक्ति के रूप में सशक्त ढंग से प्रस्तुत किया।
इस प्रकार, निराला की कविता केवल काव्य संरचना या विषयवस्तु में नहीं, बल्कि उसकी अंतर्वस्तु में भी मौलिक है। उन्होंने राम के माध्यम से केवल पौराणिकता का पुनरुत्थान नहीं किया, बल्कि धर्म और अधर्म के संघर्ष को आधुनिक दृष्टिकोण से विश्लेषित किया। राम को एक मानव के रूप में प्रस्तुत कर उन्होंने यह दिखाया कि वास्तविक शक्ति किस प्रकार आत्ममंथन और आत्मबोध से प्राप्त होती है। यह केवल शक्ति की आराधना नहीं, बल्कि शक्ति की मौलिक कल्पना है—एक ऐसा विचार जो बताता है कि शक्ति कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारे भीतर ही सुप्त रूप में विद्यमान है। जब मनुष्य हार की स्थिति में अपने आत्मबल का आह्वान करता है, तब वही शक्ति, जो पहले परायी प्रतीत होती थी, अंतःप्रेरणा बनकर उसका साथ देती है। यही इस कविता का मूल संदेश है, और यही इसका कालजयी स्वरूप।
निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ इस दृष्टि से भी विशेष बनती है कि उन्होंने प्राचीन सांस्कृतिक आदर्शों का युगानुरूप संशोधन करते हुए उन्हें पुनः गढ़ा। राम—जो परंपरा में अवतार माने गए—यहाँ एक युगपुरुष नहीं, बल्कि संशयग्रस्त संघर्षशील मानव हैं। वे शक्ति की याचना करते हैं, पूजा करते हैं, गिरते हैं, उठते हैं और अंततः शक्ति की कृपा नहीं, अपनी मौलिक चेतना से विजय प्राप्त करते हैं। निराला के इस दृष्टिकोण से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों को यथावत नहीं स्वीकार किया, बल्कि उन्हें आधुनिक संदर्भ में आत्मसंघर्ष और जनचेतना के वाहक के रूप में रूपांतरित किया।
निष्कर्षतः, यह कविता अपने सीमित कलेवर में वह सशक्त जीवन-दर्शन प्रस्तुत करती है, जो मनुष्य को निराशा, पराजय और अंधकार से निकालकर आत्मशक्ति की ओर ले जाती है। यह बताती है कि हर मनुष्य किसी न किसी संघर्ष में राम की तरह हार मानने की कगार पर होता है—जहाँ शक्ति पर विश्वास डगमगाने लगता है, आत्मबल चुकता है और अस्तित्व संकट में पड़ जाता है। लेकिन यदि वह शक्ति की मौलिक कल्पना करता है—अर्थात् अपने भीतर की शक्ति, ऊर्जा, विवेक और चेतना को जाग्रत करता है—तो वह स्वयं को संकट से उबार सकता है। यही वह बिंदु है जहाँ कविता केवल पौराणिक आख्यान नहीं, मानव जीवन का प्रतीकात्मक रूपक बन जाती है। यही कारण है कि ‘राम की शक्ति पूजा’ अपने भाव, भाषा, शिल्प, संरचना और दृष्टि में इतनी समृद्ध, मौलिक और सशक्त है कि वह हिंदी साहित्य की एक अमर रचना बन जाती है, जो न केवल अतीत की गाथा है, बल्कि वर्तमान और भविष्य के जीवन-संघर्षों की कालजयी व्याख्या भी।
"राम की शक्ति पूजा" और निराला दोनों को बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
- स्तुति राय