मोचीराम : एक कवि की सामाजिक क्रांति की घोषणा

धूमिल की कविता 'मोचीराम' हिंदी कविता में जनपक्षधरता, सामाजिक यथार्थ और सत्ता-सम्बंधों की तीखी आलोचना का अनोखा उदाहरण है। यह कविता एक साधारण मोची के अनुभवों के माध्यम से लोकतंत्र की विफलताओं, जाति-पेशा संबंधों, भाषा के वर्चस्व और मानवीय संवेदना को गहरे स्तर पर उजागर करती है।

शोध आलेख

उज्जवल कुमार सिंह

6/23/2025

सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' हिंदी कविता के उस युगप्रवर्तक कवि हैं, जिन्होंने कविता को केवल सौंदर्यबोध की वस्तु नहीं रहने दिया, बल्कि उसे सामाजिक यथार्थ और अन्याय के विरुद्ध एक निर्भीक औज़ार के रूप में स्थापित किया। 'मोचीराम' उनकी सर्वाधिक चर्चित और प्रतिनिधि कविता है, जो न केवल एक साधारण मोची के अनुभव को स्वर देती है, बल्कि भारतीय समाज की गहरी अंतर्धाराओं—जैसे जातिवाद, वर्गभेद, भाषिक वर्चस्व और सत्ता के ढाँचे—की पड़ताल करती है। धूमिल की यह कविता हिंदी कविता के क्षेत्र में एक निर्णायक मोड़ का संकेत करती है, जहाँ काव्य भाषा को शालीनता और प्रतीकवाद की रूढ़ियों से मुक्त कर उसे जनता के संघर्षों और संवेदनाओं से जोड़ा जाता है। 'मोचीराम' के केंद्र में एक मोची है, पर यह मोची केवल एक व्यक्ति नहीं, वह एक दृष्टिकोण है—एक दार्शनिक अनुभव है—जो समाज को अपने हथौड़े, सुई और राँपी की नजर से देखता है और पहचानता है। यह कविता सामाजिक संरचनाओं की विफलताओं, लोकतंत्र के खोखलेपन, जातिगत व्यूह-रचना, पेशागत अस्पृश्यता और मनुष्य की अस्मिता पर सीधा संवाद करती है। मोचीराम का यह कथन कि "हर आदमी एक जोड़ी जूता है" केवल प्रतीक नहीं, बल्कि मानव समाज की उस हकीकत का बयान है जहाँ आदमी अपनी पहचान, अधिकार और गरिमा के लिए बार-बार व्यवस्था से मरम्मत की उम्मीद करता है। इस कविता में धूमिल न तो केवल एक राजनीतिक वक्तव्य दे रहे हैं, न ही एक करुण चित्र खींच रहे हैं—वे एक ऐसे सामाजिक दस्तावेज़ की रचना कर रहे हैं, जिसमें पीड़ा, असहमति, संवेदना, प्रतिरोध और आत्म-साक्षात्कार का समावेश है। 'मोचीराम' भारतीय लोकतंत्र की उस विडंबना को सामने लाती है जहाँ समानता का दावा तो है, किंतु हर आदमी अब भी 'जूते की नाप से बाहर नहीं है'। यह कविता सामाजिक चेतना को झकझोरती है और यह स्मरण कराती है कि अगर जीवन में 'सही तर्क' नहीं है, तो रामनामी बेचने और रंडियों की दलाली में कोई फर्क नहीं रह जाता। धूमिल की यह कविता शिल्प और भाषा दोनों स्तरों पर क्रांति का घोष है। रचनात्मक दृष्टि से यह एक प्रयोग है—क्योंकि यह कविता उस भाषा में लिखी गई है जो जनसामान्य की है, जिसमें आक्रोश है, खुरदरापन है, लेकिन आत्मा की सच्चाई भी है। 'मोचीराम' का मोची कोई पराजित या निरीह पात्र नहीं है, वह संवेदनशील और सजग नागरिक है जो जानता है कि 'पेशे और फटे जूतों के बीच कहीं न कहीं एक आदमी है'। वह अपने औज़ारों के माध्यम से जो अनुभव करता है, वही उसकी विचारधारा बन जाती है। धूमिल इसी अनुभव को काव्य में बदलते हैं। इस कविता में सामाजिक यथार्थ की वह गहराई है जिसे साहित्य में विरल ही देखा गया है। यह कविता किसी विशेष वर्ग या जाति की नहीं, बल्कि उस सार्वभौमिक मनुष्य की है जो असमानता, अन्याय और उपेक्षा के विरुद्ध चुप नहीं रहता। इसलिए 'मोचीराम' धूमिल की नहीं, समूचे जनपक्षधर साहित्य की सामाजिक क्रांति की घोषणा है।

धूमिल की कविता सामाजिक अन्याय, राजनीतिक विडंबना और जन-संवेदना की वास्तविकता को सामने लाने वाली कविता है। उनकी रचनाशीलता किसी एक सौंदर्यशास्त्र में सीमित नहीं रहती, बल्कि वह अनुभव और यथार्थ की तल्ख ज़मीन पर खड़ी होती है। 'मोचीराम' कविता इसी यथार्थवादी संवेदना का प्रबल उदाहरण है, जिसमें कवि एक सामान्य मोची की आवाज़ के माध्यम से समाज की बहुवर्गीय और बहुजातीय संरचना की परतें खोलता है। कविता के आरंभ में ही यह स्पष्ट हो जाता है कि मोचीराम का कथन कोई मामूली वक्तव्य नहीं, बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण का गहरा प्रतिबिंब है—"बाबूजी सच कहूँ—मेरी निगाह में / न कोई छोटा है / न कोई बड़ा है / मेरे लिए, हर आदमी एक जोड़ी जूता है।" यह कथन जहाँ एक ओर पेशागत दृष्टिकोण को दर्शाता है, वहीं दूसरी ओर एक ऐसी लोकतांत्रिक दृष्टि को प्रकट करता है, जो व्यक्ति को उसके कार्य और गरिमा के आधार पर देखती है, न कि जाति या सामाजिक पदानुक्रम के आधार पर। धूमिल इस मोची के माध्यम से व्यवस्था की उन सच्चाइयों को उद्घाटित करते हैं जिन्हें प्रायः कविता में नजरअंदाज़ कर दिया गया है। यह कविता जातिगत छुआछूत की परंपरा को चुनौती देती है और यह दर्शाती है कि किस प्रकार पेशागत विभाजन मनुष्यता को खंडित करता है। मोचीराम का यह कथन—"कोई आदमी जूते की नाप से बाहर नहीं है"—भारतीय लोकतंत्र पर गहरा कटाक्ष है, जहाँ संविधान प्रदत्त समानता की धारणा के बावजूद सामाजिक व्यवहार में व्यक्ति आज भी मापे जाते हैं, बाँटे जाते हैं और परखते जाते हैं। कवि का मोची अपने पेशे और अनुभव से जनता के चरित्र को पढ़ता है। वह जानता है कि सत्ता का वास्तविक चेहरा क्या है, और किस प्रकार से वह आम जन की चेतना को कुचलती है। मोचीराम जब कहता है—"पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच / कहीं न कहीं एक आदमी है / जिस पर टाँके पड़ते हैं"—तो वह व्यवस्था के उस अमानवीय चेहरे की ओर इशारा करता है, जहाँ मनुष्य को केवल उसके उपभोग की दृष्टि से देखा जाता है। धूमिल इस कविता में सत्ता के प्रतीकों—हिटलर जैसा रौब दिखाने वाला व्यापारी, नकली शालीनता ओढ़े हुए खाए-पिए लोग, और व्यवस्था के गलियारों में घूमते पाखंडी चरित्रों—का पर्दाफाश करते हैं। वे बताते हैं कि लोकतंत्र केवल चुनाव और संविधान का नाम नहीं, बल्कि वह सामाजिक व्यवहार है जिसमें हर व्यक्ति को समान गरिमा मिले। 'मोचीराम' एक सामाजिक उद्घोष है, जो कहता है कि असहमति केवल नारेबाज़ी नहीं, वह चेतना है, विचार है और नैतिकता है। यह कविता 'असहमति की नैतिकता' का पाठ पढ़ाती है और कहती है कि "इनकार से भरी हुई एक चीख़ और एक समझदार चुप दोनों का मतलब एक है।" धूमिल की यह पंक्ति बताती है कि प्रतिरोध के भी अलग-अलग चेहरे होते हैं और दोनों की वैधता बराबर है। कविता में जो मोची है, वह केवल अपने पेशे तक सीमित नहीं, वह एक ऐसा व्यक्ति है जो अपने अनुभवों के आधार पर सत्ता, भाषा और समाज का मूल्यांकन करता है। वह जानता है कि भाषा पर किसी जाति का एकाधिकार नहीं होना चाहिए और जीवन की सच्चाइयों को केवल किताबों से नहीं नापा जा सकता। धूमिल की कविता में यह सामाजिक दृष्टिकोण अत्यंत विशिष्ट है—वह न तो केवल आलोचना करती है, न ही केवल करुणा दर्शाती है, बल्कि वह पाठक को भीतर से झकझोरती है और एक नया दृष्टिकोण देती है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि 'मोचीराम' धूमिल की सामाजिक चेतना का सशक्त दस्तावेज़ है, जो कवि की जिम्मेदारी को एक नये स्तर पर ले जाता है।

मोचीराम का चरित्र सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' की कविता का केंद्रबिंदु है, जो किसी साधारण मोची का चित्रण मात्र नहीं, बल्कि एक समूचे वर्ग, जीवनदृष्टि और मूल्यबोध का प्रतीक बन जाता है। 'मोचीराम' का चरित्र उस आम भारतीय का प्रतिनिधित्व करता है जो जीवन की विषमताओं, सामाजिक शोषण और जातिगत दमन को सहते हुए भी अपनी संवेदनशीलता, नैतिकता और चेतना को जीवित रखता है। इस कविता में मोचीराम का वर्णन कवि ने जिस शैली और गहराई से किया है, वह पाठकों के समक्ष एक ऐसा पात्र उपस्थित करता है जो न केवल अपना पेशा ईमानदारी से निभाता है, बल्कि समाज के नैतिक मूल्यों की पुनः व्याख्या भी करता है। मोचीराम का यह कथन—"मेरे लिए, हर आदमी एक जोड़ी जूता है / जो मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है"—न केवल उसके पेशे की दृष्टि को प्रकट करता है, बल्कि यह एक व्यापक सामाजिक दृष्टिकोण का भी उद्घाटन करता है जिसमें हर मनुष्य, भले ही वह किसी भी जाति, वर्ग या पद का हो, अपने भीतर कुछ टूटा, कुछ बिगड़ा और कुछ मरम्मत योग्य लिए खड़ा है। यह दृष्टि उस समभाव की है जिसमें व्यक्ति को उसके बाह्य वैभव, सत्ता या हैसियत से नहीं, बल्कि उसकी ज़रूरत, उसकी पीड़ा और उसके सत्य से देखा जाता है। मोचीराम किसी विद्रोही की तरह आक्रामक नहीं है, परंतु उसका आक्रोश उसकी सधी हुई भाषा में, उसके अवलोकनों में और उसकी संवेदनाओं में स्पष्ट दिखाई देता है। वह जानता है कि वह समाज की नींव में खड़ा है, लेकिन उसे कोई महत्व नहीं देता। उसकी यह चेतना उसे एक सामान्य पेशेवर से एक असाधारण विचारक बना देती है। वह जानता है कि “पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच कहीं न कहीं एक आदमी है, जिस पर टाँके पड़ते हैं,” और यह अनुभूति ही उसे एक मानवीय दृष्टिकोण से भर देती है। वह इस बात से भलीभाँति अवगत है कि समाज में हर व्यक्ति कहीं न कहीं किसी कमी, चोट या घिसावट का शिकार है। ऐसे में वह जूते की मरम्मत करते हुए केवल चमड़ा नहीं सिलता, वह समाज के विघटन को जोड़ने का प्रयास करता है। उसकी आँखें, जो 'राँपी से उठी हुई' हैं, समाज को तटस्थ रूप से देखती हैं, जज करती हैं और पहचानती हैं। मोचीराम का चरित्र दार्शनिक है क्योंकि वह अनुभव के स्तर पर सच्चाई को पकड़ता है। वह जानता है कि “अगर सही तर्क नहीं है तो रामनामी बेचने और रंडियों की दलाली में कोई फर्क नहीं रह जाता।” यह बयान उसके नैतिक बोध और विवेकशीलता को प्रमाणित करता है। मोचीराम का चरित्र प्रतीकात्मक रूप से उस विवेकशील जन की छवि है जो व्यवस्था की विसंगतियों को भलीभाँति पहचानता है, किंतु उसके खिलाफ विद्रोह के स्थान पर, वह एक विवेचनात्मक दृष्टि अपनाता है। वह केवल पीड़ा का वर्णन नहीं करता, वह पीड़ा की व्याख्या करता है, उसे सामाजिक तानेबाने में देखता है और उसके स्रोतों को पहचानता है। मोचीराम के चरित्र में वह चेतना है जो बताती है कि लोकतंत्र का मूल्य केवल मत डालने से नहीं, बल्कि समान दृष्टि और व्यवहार से तय होता है। इस कविता में मोचीराम का चरित्र उस विचारधारा के विरुद्ध खड़ा होता है जो भाषा, ज्ञान और सत्ता को जातिगत विशेषाधिकार मानती है। जब वह कहता है कि “जो यह सोचता कि पेशा एक जाति है और भाषा पर आदमी का नहीं, किसी जाति का अधिकार है, वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का शिकार है,” तब वह पूरे सवर्ण वर्चस्ववादी ज्ञान-संस्कार को चुनौती देता है। मोचीराम इस अर्थ में एक जनतांत्रिक विचारक बन जाता है, जो जानता है कि भाषा किसी जाति की बपौती नहीं, बल्कि समस्त मनुष्यता का साझा साधन है। उसकी वाणी में न तो आडंबर है, न साहित्यिक कृत्रिमता—वह जीवन की ज़मीन से उगी हुई भाषा है, जो सच्चाई को सीधे स्वर में कहती है। मोचीराम का चरित्र इसी भाषा से जनता का प्रवक्ता बनता है। वह व्यवस्था को उसकी दोगलई, उसकी हिंसा और उसके दोहरेपन के लिए प्रश्नांकित करता है। वह सत्ता की उस मानसिकता को उजागर करता है जो गरीब को लूटती है और उसे अपराधी ठहराती है। ऐसे में मोचीराम का चरित्र केवल एक कवि कल्पना नहीं रह जाता, वह भारतीय समाज के उस हर संवेदनशील और सजग नागरिक की छवि बन जाता है जो अपने सीमित संसाधनों, पिछड़े पेशे और दबे स्वर के बावजूद, सच्चाई को पहचानने, कहने और जीने का साहस रखता है। इस तरह, मोचीराम एक ऐसा प्रतीक बनता है, जो सामाजिक न्याय, मानव गरिमा और लोकतांत्रिक चेतना का जीवंत दस्तावेज़ है।

'मोचीराम' में वर्णित मोचीराम का चरित्र भारतीय समाज में गहरे धँसे वर्ग और जाति के अन्तर्सम्बन्धों को भेदती हुई सामाजिक चेतना का प्रतिनिधि बनकर उभरता है। मोचीराम एक साधारण पेशेवर मोची है, पर वह केवल अपने औज़ारों और चमड़े के जूतों तक सीमित नहीं है; वह सामाजिक संरचनाओं, सत्ता समीकरणों, भाषा और पहचान के जटिल जाल को गहराई से समझता है। उसकी आँखों में केवल धंधा नहीं, बल्कि समाज की असमानताओं को पहचानने की दृष्टि भी है। वह जानता है कि इस देश में पेशा केवल आर्थिक गतिविधि नहीं, बल्कि जातीय पहचान से जोड़ दिया गया है। यही कारण है कि वह व्यंग्य के साथ यह कहता है—"जो यह सोचता कि पेशा एक जाति है / और भाषा पर आदमी का नहीं, किसी जाति का अधिकार है।" इस पंक्ति में छिपा प्रतिरोध और विवेक भारतीय जातीय व्यवस्था की जड़ पर चोट करता है। मोचीराम इस मिथ को ध्वस्त करता है कि कोई जाति विशेष किसी विशेष भाषा, विचार या पेशे की स्वाभाविक उत्तराधिकारी है। वह जाति को सामाजिक–ऐतिहासिक निर्माण मानता है, न कि कोई जन्मजात अधिकार या योग्यता का मानदंड।

कवि धूमिल इस कविता के माध्यम से उस ऐतिहासिक अवधारणा को चुनौती देते हैं, जो वर्णाश्रम व्यवस्था के अंतर्गत पेशे और जाति को एक सूत्र में बाँध देती है। ब्राह्मण पुरोहित है, क्षत्रिय योद्धा, वैश्य व्यापारी और शूद्र सेवा-नियोजित—यह व्यवस्था केवल पेशागत नहीं थी, बल्कि सांस्कृतिक, भाषिक और मानसिक अधिकारों की भी संरचना करती थी। इसी व्यवस्था में मोची जैसे पेशे को 'अछूत' कहकर हाशिये पर डाल दिया गया, और उसके श्रम, भाषा तथा अनुभव को अमानवीय बना दिया गया। किन्तु मोचीराम अपने आत्मबोध में सजग है। वह जानता है कि जूते बनाना या गाँठ कसना केवल श्रम नहीं, एक रचना है, एक संवेदना है—और इसमें मनुष्यत्व की गरिमा है। इसलिए वह वर्गीय और जातीय चेतना को अलग करते हुए कहता है कि "मेरे लिए, हर आदमी एक जोड़ी जूता है / जो मेरे सामने मरम्मत के लिए पेश होता है।" इस रूपक में कवि ने सत्ता-संबंधों की संरचना को अत्यंत व्यंग्यपूर्ण ढंग से चित्रित किया है। समाज का हर वर्ग, हर जाति, हर पेशे का व्यक्ति—जब वह जूते की तरह सामने आता है—तो वह मरम्मत योग्य है, यानी समाज के परिवर्तन योग्य ढांचे का प्रतीक है।

मोचीराम का यह कथन सीधे उस ब्राह्मणवादी भाषिक शुद्धतावाद पर प्रहार करता है, जो यह मानता रहा है कि भाषा, विशेषतः संस्कृत और तत्सम शब्दावली, केवल ब्राह्मणों की धरोहर है। मोचीराम के माध्यम से कवि यह घोषणा करता है कि भाषा पर किसी जाति का नहीं, बल्कि सभी मनुष्यों का अधिकार है—और यह अधिकार केवल प्रयुक्त भाषा तक सीमित नहीं है, बल्कि विचार, आलोचना और संवेदना तक फैला हुआ है। मोचीराम यहाँ भाषिक लोकतंत्र का पक्षधर है। वह अनुभव और भावनाओं की साझी विरासत की बात करता है, जिसमें दलितों, पिछड़ों, किसानों, श्रमिकों और स्त्रियों की भी भाषा है, जो अब तक साहित्य, संस्कृति और सत्ता के केन्द्र से बाहर रखी जाती रही है। धूमिल मोचीराम के माध्यम से उस आम आदमी को स्वर देते हैं, जिसकी भाषा 'शुद्ध' नहीं है, मगर सच्ची है; जो गद्यात्मक है, मगर जीवन के यथार्थ से भरी हुई है। यही भाषा अब सत्ता से सवाल करती है, परंपरा को उलटती है और नए प्रतिमान गढ़ती है।

इस कविता में मोचीराम की पहचान एक सर्वहारा वर्ग के सदस्य के रूप में होती है, जो अपने पेशे से परिभाषित होने के बजाय, अपने विवेक और आलोचना-बोध से अपनी अस्मिता का निर्माण करता है। वह जानता है कि किस तरह सत्ता, जाति और भाषा का घालमेल कर के जनता को दबाया गया है। वह कहता है कि जूता और आदमी में फर्क केवल उपयोग का है—मूलभूत स्तर पर दोनों ही परिवर्तनशील, मरम्मत योग्य और समय के अधीन हैं। यह दृष्टि न केवल ब्राह्मणवादी जातिवादी संरचना को तोड़ती है, बल्कि वर्गीय चेतना को भी उभारती है। मोचीराम को यह समझ है कि सत्ता और पूँजी का गठबंधन केवल आर्थिक शोषण नहीं करता, बल्कि सांस्कृतिक और भाषिक स्तर पर भी अपने आधिपत्य को कायम रखता है। अतः वह इस आधिपत्य को चुनौती देता है—चुपचाप नहीं, बल्कि अपने व्यंग्य, प्रतीक और अनुभव के माध्यम से।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि मोचीराम का यह प्रतिरोध किसी कट्टरता या वैमनस्य से नहीं, बल्कि समझदारी और स्वाभिमान से भरा है। वह जानता है कि ब्राह्मण चाहे कितना भी सुसंस्कृत लगे, वह भी कभी न कभी उसके सामने जूते की तरह आता है—मरम्मत के लिए। और यही वह क्षण है जब सत्ता और ज्ञान की एकतरफा धारा उलटती है। अब मोचीराम के पास भी मूल्यांकन की दृष्टि है, निर्णय का अधिकार है। यह अधिकार उसे उसके पेशे से नहीं, उसकी चेतना से प्राप्त हुआ है। कविता इसी चेतना की विजय की कविता है। यह केवल एक मोची की कथा नहीं है, यह उस भारत की कथा है जहाँ श्रम, संवेदना और सत्य को जाति की दीवारों में बाँध दिया गया, और जहाँ एक साधारण कारीगर—अपनी अनुभव-सिद्ध दृष्टि से इन दीवारों में दरार डालता है।

धूमिल की यह कविता एक वैचारिक हस्तक्षेप है—वह उस ऐतिहासिक अन्याय को उजागर करती है, जो पेशा और जाति के कृत्रिम संबंधों के माध्यम से संस्थागत हो गया है। मोचीराम के स्वर में वह नैतिकता बोलती है जो सत्ता और जाति दोनों से बड़ी है। वह कहता नहीं, जीता है कि "पेशा जाति नहीं है", और भाषा, विचार, संवेदना—सभी मनुष्यों की साझी विरासत हैं। यह साझापन ही भारत के भविष्य की नींव हो सकता है, जहाँ न तो जाति से पेशे तय होंगे, न पेशे से व्यक्ति की गरिमा। मोचीराम इस भविष्य की प्रतिकात्मक घोषणा है—एक ऐसा भविष्य जहाँ मनुष्य को उसकी जाति नहीं, उसकी दृष्टि परखा जाएगा।

‘मोचीराम’ में भाषा केवल विचार संप्रेषण का माध्यम नहीं, बल्कि एक सामाजिक प्रतिरोध का औज़ार बन जाती है। यह भाषा 'साहित्यिक' नहीं है, बल्कि 'जन–भाषा' है—वह भाषा जो रोज़मर्रा के जीवन से उठती है, गलियों-बाज़ारों की सड़ी-गली गंध से परिचित है, जो सत्ता की साजिशों और सामाजिक अन्याय को सीधे शब्दों में उजागर करती है। धूमिल की यह विद्रोही भाषा काव्यात्मक अलंकरणों और प्रतीकों की बजाय राँपी जैसी है—धारदार, तेज़, व्यंग्यात्मक और बेधक। इस कविता में जो मोचीराम है, वह न केवल एक मोची है बल्कि एक अनुभव-सिद्ध आलोचक, सत्ता के दोहरेपन को पहचानने वाला सजग नागरिक भी है। धूमिल के यहाँ मोचीराम का स्वर शोषित जन की आवाज़ है, और वह जिस भाषा में बोलता है वह न कविता का शुद्धशास्त्र है, न ही कोई क्लासिक परंपरा; वह भाषा उस भारत की है जिसे सदियों तक सत्ता, वर्ण और जाति ने ‘गूँगा’ बनाए रखा। इसीलिए धूमिल के लिए कविता एक हथियार है—एक ऐसा औज़ार, जिससे वह भाषा के भीतर बैठे सत्ता के छल को उजागर करता है।

कविता की एक विशेष पंक्ति—"मगर जो ज़िंदगी को किताब से नापता है / जो असलियत और अनुभव के बीच / खून के किसी कमज़ात मौके पर कायर है / वह बड़ी आसानी से कह सकता है / कि यार! तू मोची नहीं, शायर है।"—इस विरोधाभास को गहराई से सामने लाती है। यहाँ कवि उन लोगों पर कटाक्ष करता है जो जीवन को महज़ सैद्धांतिक या किताबीय कसौटियों पर आँकते हैं। ऐसे लोग अनुभव और असलियत के बीच पसरी खाई को नहीं समझ पाते। जब कोई शोषित वर्ग का सदस्य, एक श्रमिक—अपने अनुभव, पीड़ा और असहमति को शब्द देता है—तो सत्ता के संरक्षक और बौद्धिक वर्ग उसे या तो 'शायर' कहकर महिमामंडित करता है या उसे उसके प्रतिरोध से काट देता है। यह बयान धूमिल की काव्य–चेतना को स्पष्ट करता है—वह किताबों में नहीं, अनुभवों में रची-बसी है; वह शास्त्र नहीं, व्यस्त जीवन का सार है। इसीलिए आलोचकों ने धूमिल को 'क्लासिक तोड़ने वाला कवि' कहा है, क्योंकि वह उस भाषा पर प्रश्नचिन्ह लगाता है जो सत्ता की भाषा बनकर संवेदना को छीन लेती है और विचार को बंधुआ बना देती है।

धूमिल की भाषा की यह ख़ासियत उसकी राजनीतिक चेतना से जुड़ी है। वह सत्ता और भाषा के गठजोड़ को समझते हैं और उसका प्रतिकार करते हैं। उनके लिए सत्ता केवल राजनीतिक नहीं है, बल्कि भाषिक भी है। भाषा के माध्यम से भी सत्ता यह तय करती है कि कौन बोलेगा, कैसे बोलेगा और किसकी बात को कविता माना जाएगा। धूमिल इस पूरे संरचनात्मक जाल को तोड़ते हैं। उनकी कविता में भाषा का स्रोत आम जन है—वह आदमी जो जूते गाँठता है, खेत जोतता है, रिक्शा खींचता है, और फिर भी जीवन के अर्थ, सत्ता की कुटिलता और भाषा की तंगदिली को समझता है। मोचीराम वही जन है, जो अपने श्रम से नहीं, अपने विवेक से कवि बनता है। यह भाषा अभिजात नहीं, लोक–अभिव्यक्ति है; यह वह भाषा है जो सत्ता के गाल पर तमाचा मारने के लिए तैयार है।

‘मोचीराम’ कविता में असहमति का स्वर केवल राजनीतिक विरोध नहीं, बल्कि एक नैतिक अधिनियम है। धूमिल असहमति को एक जीवन–दृष्टि की तरह देखते हैं। उनके लिए असहमति केवल शोर या भाषण नहीं है, वह एक गहराई से निकली हुई चीख है या फिर वह चुप्पी, जो विचारशील है और विरोध का अदृश्य रूप धारण करती है। यही कारण है कि कविता की एक और उल्लेखनीय पंक्ति—"इनकार से भरी हुई एक चीख और एक समझदार चुप, दोनों का मतलब एक है"—सिर्फ एक पंक्ति नहीं, बल्कि एक वैचारिक घोषणा है। यह कथन असहमति की विविधता को स्वीकार करता है और उस समाज की संरचना को चुनौती देता है जो विरोध को केवल आक्रोश या उग्र प्रदर्शन के रूप में पहचानता है। धूमिल का यह कथन बताता है कि असहमति की गरिमा को केवल उसकी शैली से नहीं, उसकी नैतिकता और चेतना से आँकना चाहिए।

यहाँ ‘चीख’ और ‘समझदार चुप्पी’ दोनों असहमति के रूप हैं—एक तीव्र और मुखर, दूसरी सूक्ष्म और शांत। किंतु दोनों में एक साझा उद्देश्य है: अन्याय के विरुद्ध चेतना की अभिव्यक्ति। यह दृष्टिकोण गांधीवादी प्रतिरोध की याद भी दिलाता है, जहाँ मौन भी एक राजनैतिक वक्तव्य होता है। धूमिल उसी परंपरा को जनभाषा में ढालते हैं, और उसे आम आदमी की चेतना से जोड़ते हैं। मोचीराम का यह ‘इनकार’ किसी क्रांतिकारी सिद्धांत से नहीं, बल्कि अपने जीवन–अनुभव, अपनी निरीक्षण क्षमता और भाषा में छिपे मूल्य-बोध से जन्मा है। वह जानता है कि सत्ता की संरचना ऐसी है जो न केवल शरीर पर, बल्कि विचार और भाषा पर भी कब्जा करना चाहती है। धूमिल की कविता इस कब्जे को नामंजूर करती है।

धूमिल की यह नैतिक असहमति उनकी काव्य–शैली को भी गढ़ती है। वह अलंकारों और काव्य–शास्त्रीय वक्रता से दूर रहते हुए एक सीधी, धारदार और स्पष्ट भाषा चुनते हैं। यह भाषा कवि की ओर से सत्ता से सवाल पूछती है, सवालों की भाषा बन जाती है—और यही उसे राजनीतिक भी बनाती है, नैतिक भी। धूमिल का काव्यलोक कोई ‘रसास्वादन’ की भूमि नहीं, बल्कि असहमति, अनुभव और चेतना की प्रयोगशाला है। उनकी कविता उस सच को उद्घाटित करती है जो सत्ता छुपाना चाहती है—कि शोषित वर्ग में भी विवेक है, संवेदना है, भाषा है और विरोध करने की शक्ति है। वह अपने अनुभव से कविता करता है, किताबों से नहीं; वह ‘कविता’ की परिभाषा बदल देता है।

अतः कहा जा सकता है कि ‘मोचीराम’ केवल एक कविता नहीं, एक सशक्त भाषिक और नैतिक हस्तक्षेप है। यह उस विमर्श को केंद्र में लाती है, जिसमें भाषा सत्ता का उपकरण नहीं, जनचेतना का माध्यम बनती है। धूमिल की भाषा न केवल ब्राह्मणवादी भाषिक वर्चस्व को चुनौती देती है, बल्कि सत्ता के छद्म नैतिकतावाद को भी उघाड़ती है। मोचीराम एक प्रतीक बन जाता है उस भारतीय नागरिक का, जो अपनी चुप्पी से, अपनी चीख से, अपनी भाषा से, अपने इनकार से सत्ता को बताता है कि अब वह ‘शायर’ नहीं रहा—वह अपनी कविता खुद लिखता है, अपने अनुभव से, अपनी असहमति से। यही असहमति उसकी नैतिकता है और धूमिल की कविता का आदर्श भी।

‘मोचीराम’ हमारे समय की उन सबसे सशक्त रचनाओं में से एक है, जो लोकतंत्र, संवेदना, नैतिकता, श्रम और भाषा की बहसों को ठोस ज़मीन देती है। यह कविता एक ऐसा प्रश्नचिन्ह है, जो लोकतंत्र की चमचमाती सतह को चीरकर भीतर छिपे खोखलेपन को उजागर करती है। यह केवल एक मोची की कथा नहीं, बल्कि उस भारतीय नागरिक की कथा है जो स्वतंत्र भारत में भी अपनी अस्मिता, अधिकार और गरिमा के लिए संघर्षरत है। धूमिल की यह कविता लोकतंत्र की विफलताओं का तीखा आकलन करती है—उस व्यवस्था की, जहाँ संवैधानिक समानता की घोषणाएँ हैं, लेकिन ज़मीन पर हर आदमी अब भी "जूते की नाप" से बाहर नहीं निकल पाया है। "हर आदमी एक जोड़ी जूता है / जो मेरे सामने मरम्मत के लिए पेश होता है"—यह पंक्ति लोकतंत्र की उस छवि को विखंडित करती है, जो 'जन' के नाम पर सत्ता का तमाशा बन चुकी है। धूमिल यहाँ लोकतंत्र को विचारधारा नहीं, अनुभव की कसौटी पर परखते हैं, और यही उनकी कविता को असाधारण बनाता है।

‘मोचीराम’ कविता में ‘प्रश्न’ एक केंद्रीय तत्व है। यह प्रश्न तटस्थ नहीं, आक्रामक और असुविधाजनक है—सत्ता से, व्यवस्था से और साहित्य से भी। धूमिल की कविता बताती है कि लोकतंत्र में ‘प्रश्न’ करना नागरिक का धर्म है, लेकिन जब नागरिक ‘मोची’ होता है, तब उसके प्रश्न को नजरअंदाज़ कर दिया जाता है। मोचीराम की दृष्टि सत्ता को उसके दोहरेपन में पकड़ती है, जब वह कहता है कि आदमी को उसकी पेशेवर स्थिति से आँका जाता है, न कि उसके विवेक से। यह लोकतंत्र के समानता सिद्धांत का सरासर मखौल है। धूमिल इस सच्चाई को कवि की तरह नहीं, एक अनुभवी नागरिक की तरह उद्घाटित करते हैं। यही कारण है कि उनकी कविता किताबों से नहीं, ज़मीन से उठी हुई लगती है। ‘मोचीराम’ का अनुभव उस लोकतंत्र की असफलता का साक्ष्य बन जाता है, जहाँ आदमी अब भी 'शरीर' से पहले 'जाति', 'पेशा', 'नाप' और 'योग्यता' के नापतौल से गुज़रता है।

धूमिल की कविता का सबसे मानवीय पक्ष तब सामने आता है जब मोचीराम कहता है—"पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच / कहीं न कहीं एक आदमी है / जिस पर टाँके पड़ते हैं।" यह पंक्ति केवल प्रतीक नहीं, बल्कि सामाजिक पीड़ा और व्यक्तिगत संवेदना का सेतु है। यहाँ टाँका केवल जूते पर नहीं पड़ता, वह आदमी की आत्मा पर पड़ता है। धूमिल केवल आलोचक नहीं, एक संवेदनशील दृष्टा बन जाते हैं, जो पीड़ा को केवल देखते नहीं, महसूस भी करते हैं। वे अपने पाठक को उस अनुभव से जोड़ते हैं, जहाँ जूता महज़ मरम्मत की वस्तु नहीं, आदमी की टूटी हुई गरिमा का रूपक बन जाता है। ‘टाँके’ प्रतीक हैं उन घावों के, जो समाज ने असमानता, जाति, पेशा और वर्ग के आधार पर अपने नागरिकों पर लगाए हैं। धूमिल की कविता इन घावों को अनदेखा नहीं करती, बल्कि उन्हें सामने लाकर उस ‘सभ्य’ समाज की आत्मा को झकझोरती है जो अब भी इंसान को ‘जुते’ की तरह इस्तेमाल करता है।

‘मोचीराम’ का चरित्र सामाजिक चेतना से भरपूर है, पर उतना ही निजी भी। जब वह कहता है—"मैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ।"—तो वह अपने पेशे से ऊपर उठकर एक आध्यात्मिक, मानवीय स्तर पर पहुँच जाता है। यह पंक्ति आत्मसात की उस गहराई को दर्शाती है जहाँ कारीगर अपनी कारीगरी को केवल श्रम नहीं, एक संवेदनशील कर्म मानता है। यह मोचीराम की निजता का, उसकी आत्मा का उद्घाटन है। पेशे और मनुष्यता जब एकाकार हो जाते हैं, तो कारीगर केवल हाथ से नहीं, हृदय से काम करता है—और यही मनुष्यता की रक्षा की पहली शर्त है। धूमिल का मोचीराम एक श्रमिक है, मगर वह कविता का वाहक भी है—वह कविता जो शोषण की भाषा नहीं बोलती, बल्कि उसे प्रश्नांकित करती है।

यह कविता केवल सौंदर्यशास्त्र नहीं, बल्कि संघर्ष की भूमिका है। ‘मोचीराम’ दरअसल कविता और क्रांति की उस अंतःक्रिया को व्यक्त करती है, जहाँ कविता सत्ता का सजावटी औज़ार नहीं, एक प्रतिरोध का हथियार बन जाती है। कविता व्यवस्था को आईना दिखाती है—और जब मोचीराम कहता है—"अगर सही तर्क नहीं है / तो रामनामी बेचकर या रंडियों की / दलाली करके रोज़ी कमाने में / कोई फ़र्क नहीं है।"—तब यह कथन न केवल व्यवस्था की नैतिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है, बल्कि भाषा, रोज़गार और नैतिक द्वंद्व को एक साथ समेटता है। यह वाक्य उस भारत के हृदय में गूंजता है जहाँ धर्म, स्त्री और श्रम तीनों को पूँजी और सत्ता के यंत्र में बदल दिया गया है। धूमिल इस यंत्र के विरुद्ध खड़े होते हैं—कविता के माध्यम से। वह धर्म की दुकानदारियों, भाषा की पवित्रता और रोज़गार की नैतिकता, तीनों को प्रश्नों के कटघरे में खड़ा करते हैं। उनकी कविता चुप नहीं रहती, बल्कि चीखती है—पर यह चीख समझदार है, अनुभवसिद्ध है और जिम्मेदार भी।

धूमिल की ‘मोचीराम’ कविता का हर वाक्य एक मोर्चा है—संवेदना का, विवेक का और नैतिकता का। यह कविता बताती है कि सामाजिक क्रांति केवल नारेबाज़ी से नहीं आती; वह तब आती है जब कोई कवि जनता के अनुभवों को भाषा में ढालकर, उन्हें स्वीकृति और गरिमा देता है। धूमिल का मोचीराम केवल एक व्यक्ति नहीं, एक संवेदनशील चेतना है—वह उस असली लोकतंत्र की माँग करता है जो केवल संविधान की किताबों में न हो, बल्कि जीवन की किताब में भी दर्ज हो। यह कविता उस संवेदना की घोषणा है जो कहती है कि 'हर जूता मरम्मत योग्य है', यानी हर व्यवस्था, हर समाज, हर नीति सुधार योग्य है—शर्त यही है कि उसे देखने और सुधारने की नैतिक शक्ति हो।

अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि ‘मोचीराम’ केवल एक कविता नहीं है, वह सामाजिक चेतना का उद्घोष है। यह उस कवि की आवाज़ है जो व्यवस्था की चुप्पी को तोड़ता है, जो आम आदमी के भीतर छिपी संवेदना को पहचानता है और उसे कविता में रूपांतरित करता है। यह कविता सत्ता से बहस करती है, उसे चुनौती देती है, उसकी जड़ों तक जाकर उसे उखाड़ने की भूमिका तैयार करती है। धूमिल की यह कविता दिखाती है कि जब शब्द अनुभव से निकलते हैं, जब संवेदना श्रम से जुड़ती है और जब भाषा जन से बनती है—तब कविता केवल पढ़ी नहीं जाती, वह समाज को बदलने लगती है। यही धूमिल की काव्य-क्रांति है, जहाँ कविता सौंदर्य नहीं, संघर्ष है; और मोचीराम उसका अगुआ।

एक यथार्थवादी कविता की ईमानदार समीक्षा।

- स्तुति राय