मानसून और मेंढ़क
" मानसून और मेंढ़क " एक तीखा व्यंग्य है जो मानसून के मौसम में सक्रिय होते मेंढ़कों के माध्यम से वर्तमान सामाजिक, साहित्यिक और राजनीतिक हालात पर करारा प्रहार करता है। "मानसून और मेंढ़क"
व्यंग्य
उज्जवल कुमार सिंह
7/2/2025
मानसून का महीना अब कोई मौसम नहीं रहा, यह तो जैसे जीव-जंतुओं के लिए एक वार्षिक समारोह बन चुका है, जिसमें सबसे मुखर और उर्जावान प्रजाति — मेढ़क — मंच संभाल लेते हैं। इधर बारिश की दो बूँदें क्या पड़ीं, उधर जैसे किसी वैश्विक सम्मेलन का उद्घाटन हो गया, जहाँ हर आकार-प्रकार, रंग-रूप, कंठस्वर और कूद क्षमता के मेंढ़क अपनी उपस्थिति दर्ज कराने निकल पड़ते हैं — बिल्कुल वैसे ही जैसे किसी विश्वविद्यालय में नया सत्र शुरू होते ही छात्रसंघ के चुनाव में पुराने सीनियर और नए फ्रेशर एक साथ मैदान में कूदते हैं, कुछ वाकपटुता के बल पर और कुछ पोस्टर-बैनर के रंग-रोगन से। और यह जो टर्राहट है न, इसे हल्के में न लें! यह कोई साधारण प्राकृतिक ध्वनि नहीं, यह इस बात की उद्घोषणा है कि जनाब, अब ‘अज्ञातवास’ समाप्त हुआ और हर मेंढ़क को मंच, माइक और मोबाइल चाहिए — वह भी कैमरा ऑन कर के!
अब देखिए, फासिस्ट सरकारें तो हर कालखंड में रही हैं, लेकिन इस बार जो ‘भिनकना’ बंद किया गया है, वह अभिव्यक्ति की आज़ादी के बहाने टर्राने का सबसे बड़ा हनन है। पहले अखबारों में एक कॉलम किसी कवि मेंढ़क के लिए आरक्षित होता था, आज वह कॉलम ‘क्लोज्ड फॉर मेंटेनेंस ऑफ नरेटिव’ में बदल चुका है। अब जिसे कुछ कहना हो, वह फेसबुक पर स्टेटस लिखे — चाहे किसी के विरुद्ध या अपने ही समर्थन में — और जिसे थोड़ी सी ज्यादा ‘क्री’ है, वह इंस्टा लाइव पर आकर 'टर्राट्रेंड' चला दे। लेकिन इस सोशल मीडिया मंच पर भी, जैसे जंगल में जामुन के पेड़ पर सीमित जगह होती है, उसी तरह यहाँ भी दो-चार रसूखदार मेंढ़क ही हर हफ्ते लाइक और कमेंट के तालाब में गोता लगाते हैं, बाकी छोटे मेंढ़क उसी पानी में बुदबुदाते रहते हैं — “मुझे भी देखो, मुझे भी सुनो, मेरी भी सुनो!” लेकिन अब इतनी आसानी से कोई किसी की नहीं सुनता, जब तक कि वह मेंढ़क न्यूटन के तीसरे नियम को चुनौती देने की हिम्मत न जुटा ले — “जितनी जोर से फेंकोगे, उतना ही पब्लिक का ध्यान मिलेगा।”
अब इस ‘फेंकने’ के भी कई स्तर हैं। कुछ मेंढ़क तो टर्राने के साथ-साथ ऐसा फेंकते हैं कि लगता है — अभी धरती छोड़कर मंगल पर जा पहुँचेगा और वहीं से लाइव करेगा — “मंगल की मिट्टी में भी लोकतंत्र की बू है!” लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि उनका यह फेंकना न केवल न्यूटन को, बल्कि पूरे विज्ञान समुदाय को मानसिक आघात पहुँचा रहा है। और जब गिरते हैं तो इतनी जोर से कि खुद ही गूंगे हो जाते हैं — “अबे, मैं क्या कह रहा था?” इसी बीच कुछ मेंढ़क ऐसे भी हैं, जो अपनी औक़ात देखकर ही फेंकते हैं — "थोड़ा फेंको, थोड़ा चमको" की नीति अपनाते हैं। ये प्रजातियाँ उतनी ही सतर्क होती हैं जितनी संसद में कोई विपक्षी सदस्य, जो सत्ता की निंदा तो करता है लेकिन इतनी धीमी आवाज़ में कि माइक ऑन हो भी जाए तो भी रिकॉर्ड न हो!
अब असली मज़ा तब आता है जब इन मेंढ़कों में से कुछ, जिनकी त्वचा थोड़ी ज्यादा चमकदार होती है (क्योंकि वे अमृतधारी संस्थानों से स्नातक हैं), वे मदारी बनने का दावा ठोक देते हैं। ये मदारी मेंढ़क दूसरों को प्रशिक्षित करते हैं — “टर्राना ऐसे नहीं ऐसे करो”, “कूदना हो तो बैकग्राउंड में कोई मिथकीय कथा जोड़ लो”, “कविता में दो-चार हाइफन, इमोजी और क्रांति का नाम डाल दो, जनता खींची चली आएगी।” और इनकी बातों में सच्चाई भी होती है, क्योंकि आजकल कला नहीं, उसकी ब्रांडिंग बिकती है — और ब्रांडिंग मेंढ़क की आवाज़ से नहीं, उसके ‘फ्रेंडलिस्ट’ से तय होती है।
अब आइए असली समस्या पर — ये बड़े मेंढ़क, जो कूदते कम, बैठते ज़्यादा हैं, उनके पास ‘मेंढ़क रत्न पुरस्कार’ बाँटने का अधिकार है। यह पुरस्कार वैसे तो किसी भी कूदने वाले को मिल सकता है, लेकिन मिलता सिर्फ़ उसी को है जो बड़े मेंढ़क की कीचड़ में बैठकर उसके टर्राट्रैक्स की वाहवाही करता है। ऐसे में छोटा मेंढ़क चमचागिरी की महाविद्या में स्नातक होकर, अपने गुरू को टैग करता है, उसे फॉलो करता है, और हर नई टर्राहट पर कमेंट में “क्या बात है, क्या सोच है, क्या दर्शन है” जैसे शब्दों का प्रयोग करता है, जिससे बड़े मेंढ़क की आस्था और चमचे की भूख दोनों संतुष्ट हो सके। यह चमचागिरी कोई साधारण कर्म नहीं है, यह एक प्रकार की तपस्या है, जिसमें अपने स्वाभिमान की आहुति देकर, ‘शिष्यत्व’ का लड्डू प्राप्त होता है। और यह लड्डू, केवल ‘मेंढ़क रत्न पुरस्कार’ प्राप्त करने का टिकट नहीं, बल्कि एक सामाजिक मान्यता है — "देखो, यह वही मेंढ़क है जो उस मेंढ़क के चरणों में बैठा करता था!" अब चरण कोई चीज़ नहीं, ये सिर के ऊपर बैठी ‘दुम-रहित बाल वाली’ सत्ता है, जिसे पकड़े रहने के लिए कई मेंढ़क अपना जीवन न्यौछावर कर देते हैं। और सबसे हास्यास्पद बात तब होती है जब यह मेंढ़क समाज, मनोरंजन की जिम्मेदारी खुद उठा लेता है। पहले यह काम बंदर किया करते थे — रुमाल पहनकर नाचते थे, तालियाँ बजाते थे और जनता को हँसाते थे। लेकिन जब से मेंढ़कों ने ‘बोलने’ और ‘फेंकने’ की कला सीखी है, तब से बंदर अनाथ से हो गए हैं। अब जो कभी रस्सी पर चलने वाले, अब खुद ही पिटारे में बैठ गए हैं — “क्या करें, न सरकार हमें पूछती है, न जनता।” क्योंकि सरकार में अब जो मदारी बैठा है, वह स्वयं ही मेंढ़क की जाति से है, और उसकी हरकतें भी बिल्कुल वही — छलांग मारना, टर्राना और बारिश आते ही सक्रिय हो जाना।
इन मेंढ़कों की मज़ेदार बात यह है कि ये केवल मनोरंजन नहीं करते, ये विचारधारा, संस्कृति, दर्शन और राजनीति सबकुछ अपने अंदर समेटे हुए हैं। एक मेंढ़क बोलेगा — “मैं अस्तित्ववाद का मेंढ़क हूँ”, दूसरा बोलेगा — “मैं समकालीन सत्ता विरोध का प्रतीक हूँ”, तीसरा बोलेगा — “मैं जलवायु परिवर्तन का शोकगीत हूँ” और चौथा — “मैं उस कवि की आत्मा का पुर्नजन्म हूँ जिसने लिखा था — ‘बंदर उछले पानी के अंदर।’” अब आप सोचिए, जब इतने सारे मेंढ़क एक साथ आत्मा-परिवर्तन और समाज-सुधार का बीड़ा उठा लें तो बाकी जीव क्या करें? साँप तक भ्रमित हो जाता है — “भाई, ये मेरे शिकार हैं या मेरे गुरु?” दरअसल, आज का समय एक अजीब द्वंद्व में फंसा है — जहाँ सच्चा टर्राना और झूठा टर्राना अलग नहीं हो पा रहा। हर मेंढ़क अपने को जल का शेर समझ रहा है और हर तालाब अपने को काशी का मणिकर्णिका। अब आप ही बताइए, जब मेंढ़क के पास दर्शन हो, व्यंग्य हो, कला हो, और चमचों की पूरी फौज हो, तब भला किसी बंदर को कौन पूछेगा? वह बेचारा अब झूले में झूलता है और कभी-कभी आत्ममंथन करता है — “काश, मैं भी मेंढ़क होता तो आज किसी साहित्य सम्मेलन का उद्घाटन कर रहा होता।”
तो भैया, मानसून का मतलब अब सिर्फ़ खेती नहीं, बल्कि मेंढ़क महोत्सव है, जहाँ हर कोई ‘स्वर’ में है, ‘अभिव्यक्ति’ में है, और ‘कूद’ में है — कोई भले ऊँचा न कूदे, पर ‘कह’ तो रहा है — “मैं हूँ, और मैं ही अगला श्रेष्ठ मेंढ़क बनूंगा!” बाकी सब सिर्फ़ कीचड़ हैं — जिनमें ये अपनी पहचान की छप-छप छोड़ते जा रहे हैं! अब मानसून में भीगने का आनंद इन मेंढ़कों के लिए केवल मौसमी नहीं रहा, यह तो मानो एक सामाजिक-पारिवारिक परंपरा बन गई है — जहां पीढ़ियाँ टर्राहट की भाषा में अपनी वंशावली को प्रमाणित करती हैं। आपने बिलकुल सही पहचाना कि अब एक नया चलन चल पड़ा है — ‘गाली दो, ऊँचाई लो’। अब मेंढ़कों में भी जातीय वर्ग विभाजन हो गया है — सामान्य मेंढ़क, लाल मेंढ़क, रंगबिरंगे मेंढ़क, और वो ‘सुपर मेंढ़क’, जो अब खुद को चट्टानों पर विराजमान दिखाते हैं और बाकी सबको तलैया में छोड़ आते हैं।
अब बात करें उन छोटे मेंढ़कों की जो ऊँचाई नापने के चक्कर में अंगूठे पर खड़े हो जाते हैं — भाई साहब, ये दृश्य आजकल इतना आम हो गया है कि कुछ तो पूरे शरीर को ‘हील’ की तरह इस्तेमाल करते हैं, बस अपना सिर ऊँचा दिखाना है, चाहे विचार का संतुलन ही क्यों न बिगड़ जाए। और जब उनसे भी ऊँचाई नहीं बनती तो फौरन सहायता के लिए अपने जैसे या अपने से थोड़े ऊँचे मेंढ़कों को पुकारते हैं — "भाई, तू अपनी पीठ दे, मैं चढ़कर टर्रा दूँ।" और पीठ मिल भी जाती है, क्योंकि गाली संस्कृति में भाईचारा ज़रूरी होता है। फिर वह ऊँचा चढ़ा हुआ मेंढ़क, टर्राकर कहता है — "देखो, मैं कितना बड़ा हूँ! मैंने भी तो वही गाली दी थी जो उस सुपर मेंढ़क ने दी थी। मैं भी उसी रक्तवर्ण वंश का हूँ — लाल मेंढ़क! उसी शाखा से आया हूँ जहाँ गाली देना एक प्रकार की विद्या मानी जाती है।"
अब ये 'लाल मेंढ़क' तो अपने आप को क्रांतिकारी मेंढ़क समझते हैं — जैसे किसी पुराने मेंढ़क ने पंक में बैठकर एक बार कहा था, “गाली देना हमारी परंपरा है, और जो पंक से नहीं निकला, वो मेंढ़क कैसा!” इसलिए ये आजकल खुलेआम गाली को ‘भाषाई शौर्य’ मानकर इस्तेमाल कर रहे हैं। उनकी दलील होती है — “हमारे पुर्वजों ने भी तो मदारी को गाली दी थी, बंदर को भी उछलने की औकात बताई थी, तो हम क्यों न कहें? हमने तो बचपन से यही सीखा है, गाली देना नहीं आता तो मेंढ़क बने क्या खाक!” दरअसल, इन लाल मेंढ़कों का असली मकसद ‘पंकज’ होना नहीं, ‘पंक में प्रतिष्ठित’ होना है। उन्हें पता है कि साफ-सुथरे जल से कमल नहीं खिलते — इसलिए पंक में उतरना उनकी रणनीति है, दर्शन नहीं। वह जान चुके हैं कि कीचड़ में उतरकर गाली देने से ही सुर्खियों में आया जा सकता है — तभी तो अपने शरीर को रंग-बिरंगे शब्दों की रंगाई-पुताई में रंग लेते हैं। कोई शब्दों की सीलन ओढ़ लेता है, कोई मुहावरों की गंध और कोई व्यंग्य के नाम पर सीधे गाली देकर कहता है — “ये तो कला है, तुम्हें समझ नहीं आएगी।” और जब कोई पूछ बैठे कि भाई, यह क्या कर रहे हो, तो उसी मेंढ़क मंडली से जवाब आता है — “तुम क्या जानो विचारों की ऊँचाई! तुम तो अब भी तालाब के पुराने कवि हो, हम तो अब कीचड़ के ‘किंग्स’ हैं!”
इनका ‘किंग’ बनना भी बड़ा दिलचस्प है — एक ने गाली दी, दूसरा उसकी पीठ पर चढ़ गया, तीसरा तालियाँ बजा रहा है, चौथा पोस्ट लिख रहा है — "क्या बात है, आज के मेंढ़कों में आग है!" और पाँचवाँ मेंढ़क उसी गाली को छापकर कहता है — “इसे पढ़िए, यह आज का सच्चा साहित्य है।” तो अब साहित्य, विचार और चेतना सब गाली की गूंज में डूब गए हैं। शब्दों की गरिमा तो तब की बात थी जब मेंढ़क केवल टर्राते थे, अब तो ये चिल्ला-चिल्ला कर गाली को विमर्श बनाने लगे हैं। कुछ तो इतने उग्र हो गए हैं कि अगर किसी बंदर ने ग़लती से कुछ कह दिया, तो उसको सार्वजनिक रूप से ‘बंदरासुर’ घोषित कर देते हैं। और मदारी का तो नाम ही लेना गुनाह हो गया — वह अब महज एक प्रतीक है, जिससे तुलना कर-करके मेंढ़कों को लगता है कि वे ‘स्वतंत्र विचार’ के वाहक हैं। असल में वे बंदर और मदारी को इसलिए कोसते हैं क्योंकि उन्हें पता है — उनका अस्तित्व इन्हीं की नकारात्मक छवि पर टिका है। जैसे कोई लेखक अपनी पहचान किसी पुराने लेखक को गरियाने से बनाए — “मैंने तो उसे भी नकारा, सोचो मैं कितना मौलिक हूँ!” इस पूरी ‘मेंढ़क संस्कृति’ में अब वह आदर्श भी जन्म ले चुका है जिसे "गाली + चमचागिरी = मान्यता" का सूत्र कहते हैं। अब जो छोटा मेंढ़क ऊपर चढ़कर गाली देता है, वह न केवल ‘लाल मेंढ़क’ कहलाता है, बल्कि उसे सोशल मीडिया पर ‘चिंतनशील मेंढ़क’ भी कहा जाता है। फिर वह नए मेंढ़कों को प्रशिक्षित करता है — "बेटा, गाली इस तरह देना कि उसमें दर्शन भी हो, सत्ता विरोध भी और व्यक्तिगत कुंठा की गंध भी।" और नवागंतुक मेंढ़क पूरी श्रद्धा से कहते हैं — "गुरुवर, पंकज बनने के लिए हम पूरी तरह पंक में उतरने को तैयार हैं!"
अब ये पंक, अब कोई गंदगी नहीं रही, यह अब विचारधारा का पर्याय बन गया है। इसमें उतरकर मेंढ़क मानते हैं कि वे 'वास्तविक' हैं, 'जमीन से जुड़े' हैं, और ‘संघर्षशील’ हैं। और जो इस पंक से बचे रहना चाहें, उन्हें ये मेंढ़क ‘असली मेंढ़क’ मानने से इंकार कर देते हैं — “तू कहाँ का मेंढ़क है जो कीचड़ में नहीं उतरता, तू तो बस तालाब की रेखा है!” अब यह रेखा भी एक व्यंग्य बन चुकी है — “रेखा रह गई, रंग नहीं आया!” और अंत में, इन छोटे मेंढ़कों का दुख भी वही है जो हर महत्वाकांक्षी किंतु औसत प्रतिभा वाले जीव का होता है — "हमें भी वो ऊँचाई मिले जो बड़े मेंढ़कों को मिली थी!" अब भले न वे कोई नया सुर ला सकें, न नई छलांग, न कोई गूढ़ विचार, लेकिन गाली तो फिक्स है — और अब यही उनकी अर्जी है, यही उनकी अर्जुनता है, और यही उनका अर्जन भी। तो कहिए भला, जब ‘गाली’ ही ‘गुण’ बन जाए, ‘पंक’ ही ‘पद्म’ बन जाए, और ‘कूद’ ही ‘काव्य’ का पर्याय बन जाए — तब क्या बचेगा? बस टर्राहटें… और वह भी इतनी कि तुलसीदास भी पुनः जन्म लें तो कहें —
“दादुर धुनि चहु दिसा दुःखदायी।
चमचा, गाली, छलांग समाई!”
इनके टर्राने में कोई ऐसी कर्कश-मधुरता होती है जिसे सुनकर श्रोता भ्रम में पड़ जाता है कि यह कोई लोकगीत है या लोकरंजन की योजना। कभी-कभी इनके सुर इतने अजीब संयोग से निकलते हैं कि मानो तानसेन की तान और चतुर्भुज की चपलता का कोई उथला संगम हो। इनकी छलांग में ऊँट की बैठक है, चाल में हिरण की सी अकुलाहट है, और सिर पर दुमविहीन सौंदर्य है—जो शिशुओं की पहेलियों में दर्ज हो चुका है—“ऊँट की बैठक, हिरण की चाल / जिसके सिर पर दुम न बाल / बोलो बच्चों, वह कौन पहलवान?” और बच्चों की मासूम बुद्धि उत्तर देती है—“एक छोटा-सा बंदर, जो उछले पानी के अंदर।” अब यह बंदर और मेंढ़क का समागम किस तरह का प्राणी बनाता है, यही वर्तमान का ‘सुपर मेंढ़क’ है—जो ना केवल पानी के अंदर उछलता है, बल्कि सोशल मीडिया के मंचों पर भी स्वेच्छा से मंचासीन हो जाता है। इन मेंढ़कों की सबसे खास विशेषता यह है कि यह केवल अपने अस्तित्व का प्रदर्शन करने नहीं निकलते, बल्कि किसी संभावित पुरस्कार, सम्मान या पोस्ट के लिए भी तालाब के रंगमंच पर उतरते हैं। और जब जनता ने पहली बार इनकी टर्राहट सुनी थी, तब तालियाँ बजी थीं, वाह-वाह हुई थी, हर मेंढ़क को नया कलाकार माना गया था—जिसमें कोई नुक्कड़ नाटक का कलाकार था, कोई हाइकूकार, कोई नाटककार और कोई आत्मकथाकार। जनता ने सोचा, चलो कुछ मनोरंजन मिलेगा इस ऊब भरे जीवन में, लेकिन जैसे-जैसे बरसात आगे बढ़ी, और टर्राहटों की गूंज तालाब से सोशल मीडिया, वाट्सऐप यूनिवर्सिटी और ऑनलाइन काव्य मंचों तक पहुँच गई, तब जनता की सहनशक्ति ने भी अपने बाँध पर दरार महसूस की।
अब जनता दुविधा में है—क्योंकि टर्राहट का यह महासंग्राम इतना विकराल हो चुका है कि तय करना मुश्किल हो गया है कि किस मेंढ़क की आवाज़ में विचार है, किसकी में स्वार्थ है और किसमें केवल भटकाव। कभी जो मेंढ़क नूतनता और नयेपन का दावा करते थे, अब वही अपने पुराने करतब को रीमिक्स कर-करके फिर से दिखा रहे हैं—वही पुरानी छलांग, वही कवि-सम्मेलन में पढ़ी गई पंक्तियाँ, वही विरोध का अभिनय, वही संस्थागत प्रायोजन के विरुद्ध हँसी के बुलबुले। जनता अब थकने लगी है—क्योंकि यह समझ ही नहीं आता कि कौन से मेंढ़क को सुना जाए, किसको गुना जाए और किसको धुना जाए। और जब जनता अपने विवेक से तय नहीं कर पाती तो वह स्वतः ही ऊब की अवस्था में चली जाती है और अपनी दृष्टि एक नए मेंढ़क की ओर मोड़ देती है जो या तो अभी-अभी अंडे से निकला है, या फिर जिसकी टर्राहट में एक नया सुर है, नया जोश है, या फिर बस नया चेहरा है। और समस्या की पराकाष्ठा तो तब होती है जब पता चलता है कि इस बार की बारिश पूर्वानुमान से कहीं अधिक हुई है—इस बार इतनी बरसात हुई है कि सारे मेंढ़क बाहर आ गए हैं। कोई भी कंदरा अब मेंढ़कों से रहित नहीं है—हर शाख, हर झाड़ी, हर घास के टुकड़े पर कोई न कोई मेंढ़क बैठा अपनी टर्राहट की प्रस्तुति दे रहा है। न सिर्फ गाँव-कस्बे के तालाबों में, बल्कि दिल्ली की लॉबी, बनारस की गलियों, कोलकाता के चौपालों और ऑनलाइन वेबिनारों में भी ये मेंढ़क अपने नाट्य-अभिनय में रत हैं। वे नई-नई पीठों पर बैठकर अपने आकार को ऊँचा दिखा रहे हैं, गालियों में व्यंग्य और व्यंग्य में दर्शन डालकर जनसमर्थन का उत्पादन कर रहे हैं, और तालाब के जल को इतना गंदला कर चुके हैं कि अब उसमें जनता अपनी परछाई भी साफ़ नहीं देख सकती। और जब मेंढ़कों की इतनी बड़ी भीड़ एक साथ एक ही दिशा में टर्राने लगे, तो पानी में कंपन भी होता है, दिशा भी भ्रमित होती है और सुनने की इच्छा भी क्षीण हो जाती है। अब जनता को लगता है—“कहीं यह पानी बस में न रहे, कहीं यह टर्राहट अब हमारी नींद न तोड़ दे, कहीं यह मानसून अब वाकई कालखंड बन जाए।” लेकिन इस सबके बीच भी एक आशा है—कि पानी का स्तर अधिकतम सीमा तक पहुँच चुका है, और अब या तो वह कम होगा या उफनकर इन मेंढ़कों को फिर से उनकी पुरानी कंदराओं में लौटा देगा। तो उम्मीद बस यही है कि जैसे ही बारिश रुकेगी, टर्राहट का यह महा-महोत्सव भी स्वतः समाप्त हो जाएगा, और जनता कुछ समय के लिए ही सही, मेंढ़क-मुक्त जीवन का स्वाद चख पाएगी।
प्रतिक्रिया


बहुत ही शानदार बिल्कुल आज के राजनीतिक परिवेश को दर्शाता है।
डॉ. पूजा सिंह
यह कहानीनुमा निबंध प्रतीकात्मक शैली में 'बरसाती मेंढक' के माध्यम से सरकारी भ्रष्टाचार और राजनीतिक दलों में नित नए पदों की सृष्टि की तीव्र आलोचना करता है। लेखक ने पाँच मेंढकों की कल्पना के माध्यम से समाज में चाटुकारिता की भयावह स्थिति को चित्रित किया है। बाबू हरिश्चंद्र के यहाँ पहले तीन मेंढक हुआ करते थे, किंतु अब लेखक द्वारा कल्पित पाँच मेंढकों ने चाटुकारिता की एक नई श्रेणी की स्थापना कर दी है। यह व्यंग्य केवल हास्य नहीं रचता, बल्कि एक तीखा सामाजिक व्यंग्य प्रस्तुत करता है, जिसमें लेखक चाटुकारिता की वर्ग-व्यवस्था पर करारा प्रहार करते हैं।
लेखक एक स्थान पर व्यंग्यपूर्वक लिखते हैं— "तुम क्या जानो विचारों की ऊँचाई! तुम तो अब भी तालाब के पुराने कवि हो, हम तो अब कीचड़ के ‘किंग्स’ हैं!" इस उद्धरण में 'कवि' और 'किंग्स' के प्रतीक के माध्यम से स्पष्ट किया गया है कि अब चाटुकारिता भी एक कला बन चुकी है, जिसमें भी 'पुराने' और 'नए' की श्रेणी तय की जाने लगी है—कौन कितना चाटुकार हो सकता है, यह अब एक सामाजिक प्रतिस्पर्धा का विषय बन चुका है। यह उद्धरण हिंदी साहित्य के विख्यात व्यंग्यकार श्री लाला शुक्ल की लेखनी की याद दिलाता है, जिनकी रचनाओं में समाज के कृत्रिम आडंबर और प्रशासनिक विडंबनाओं की बड़ी ही कुशलता से पड़ताल की गई है। लेखक का यह कथात्मक निबंध समाधान नहीं देता, बल्कि वह आशा व्यक्त करता है कि कभी न कभी जनता जागेगी—वह इन कृत्रिम आयोजनों और खोखले महोत्सवों से अलग होकर सोचेगी, समझेगी और निर्णय लेगी। यह व्यंग्य अपने भीतर एक प्रहसन की संभावना समेटे हुए है, जिसे यदि आगे लिखा जाए, तो यह अवश्य ही 'अंधेर नगरी' जैसी कालजयी प्रहसनों की श्रृंखला में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कर सकता है। यह प्रस्तुति न केवल सराहनीय है, बल्कि हिंदी व्यंग्य साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण योगदान के रूप में चिन्हित की जा सकती है। लेखक से अनुरोध है कि इस व्यंग्यात्मक शैली की अगली कड़ी शीघ्र लिखें, ताकि सामाजिक सच्चाइयों का यह आइना और अधिक स्पष्टता के साथ प्रस्तुत हो सके।
ओम आनंद गुप्ता