झगड़े लगाओ, सुलह कराओ — नोबेल घर लाओ
जंगल की राजनीति में बन्दर ने शांति का ठेका अपने हाथ ले लिया है। वह पहले जानवरों के बीच झगड़े लगवाता है, फिर खुद सुलह कराकर शांति-दूत बन जाता है। उसका सपना है शांति का नोबेल पुरस्कार, लेकिन यह शांति असली है या छलावा—यही कहानी का व्यंग्य है।
व्यंग्य
उज्जवल कुमार सिंह
8/18/2025
जंगल हमेशा से राजनीति का गढ़ रहा है—कहने को तो यहाँ कोई संविधान नहीं, न चुनाव आयोग है, न मतपेटियाँ, न ही घोषणापत्र, लेकिन असल में हर पेड़-पौधे की छाया और हर झाड़ी की सरसराहट में राजनीति की गंध फैली रहती है। हर जानवर का अपना गुट है, अपनी ताक़त है, और अपनी अलग-अलग पहचान है। शेर सत्ता का प्रतीक है तो बाघ दबदबे का, भालू अकड़ का तो हाथी भारी-भरकम प्रतिष्ठा का; छोटे-छोटे जीव जैसे तोता, कौआ, गिलहरी, खरगोश सब अपनी-अपनी ढपली बजाते हैं और मिलकर एक ऐसा संग्राम रचते हैं जो इंसानी सभ्यता की नकल ही प्रतीत होता है। लेकिन इस स्थायी अव्यवस्था में भी एक अजीब-सी स्थिरता थी—सबको अपनी-अपनी जगह पता थी और सबको दूसरों की सीमाओं का भी अंदाज़ा था। पर हाल ही में जंगल में एक ऐसा पात्र प्रवेश कर गया जिसने इस सधे-सधाए समीकरण को पूरी तरह से हिला डाला, और वह था—बन्दर महाराज। बन्दर कोई साधारण प्राणी नहीं था; उसकी महत्वाकांक्षा किसी डाल पर झूलने, केले-सेब लूटने, या झाड़ियों में छिपकर मज़ाक उड़ाने तक सीमित नहीं थी। उसकी निगाहें तो आसमान छू रही थीं। उसका सपना था—शांति का नोबेल पुरस्कार! अब सोचने की बात है कि यह कैसी विडम्बना है—जिस जीव को खुद चैन से बैठने की आदत नहीं, जिसका जीवन हर पल उछलकूद, चीख-पुकार और करतबों से भरा है, वही अगर “शांति” का झंडा उठाकर निकले तो व्यंग्य अपने आप जन्म ले लेता है। बन्दर की यही हालत थी। सुबह से शाम तक वह जंगल के कोनों में घूमता, पेड़ों से लटकता, डालियों पर उछलता, और हर सभा या जमावड़े में पहुँचकर एक ही राग अलापता—“भाइयों और बहनों! मैंने जंगल में शांति फैलाई है। अगर मैं न होता तो अब तक तुम सबकी खालें एक-दूसरे के नाखूनों से चीथ दी जातीं। मैंने ही तुम्हें लड़ाई-झगड़े से बचाया है, मैंने ही सबको मिलकर रहने का मंत्र दिया है। इसलिए तुम सब मेरी सिफ़ारिश करो कि मुझे इस साल का शांति नोबेल पुरस्कार मिल जाए।” उसकी आवाज़ में इतना आत्मविश्वास होता कि सामने बैठा कोई भी जीव हक्का-बक्का रह जाता। अब यह अलग बात थी कि पर्दे के पीछे वही बन्दर सबसे ज़्यादा झगड़े लगवाता। वह पहले किसी न किसी जानवर के कान भर देता, एक को दूसरे के खिलाफ भड़काता, फिर जब दोनों आपस में भिड़ जाते तो वह ताल ठोंककर बीच में कूद पड़ता और खुद को शांति-दूत घोषित कर देता। कभी तोते और कौवे को आपस में भिड़ा देता—तोता कहता, “मैं रंग-बिरंगा हूँ, सबका प्यारा हूँ,” और कौआ जवाब देता, “मैं बुद्धिमानी का प्रतीक हूँ, तुझसे कहीं ऊपर।” दोनों में कांव-टांय शुरू हो जाती और तभी बन्दर नायक बनकर आता—“रुको-रुको! मत लड़ो भाइयों। मैं यहाँ शांति कायम करने आया हूँ। गले मिलो, दोस्ती निभाओ और मेरे शांति अभियान में शामिल हो जाओ।” कभी खरगोश और कछुए को झगड़वा देता—खरगोश अपनी फुर्ती पर अकड़ता और कछुआ अपनी धीरज पर गर्व करता। फिर जब दोनों बहस में गरजने लगते तो बन्दर नाटकीय अंदाज़ में आकर कहता, “अरे यह सब महत्वहीन है। असली महत्व शांति का है, और शांति का असली वाहक मैं हूँ। तो चलो, सब मिलकर मेरा नाम नोबेल वालों तक पहुँचाओ।” धीरे-धीरे जंगल के भोले-भाले जीवों के मन में यह बात बैठने लगी कि बन्दर ही शायद शांति का असली ठेकेदार है। और बन्दर का आत्मप्रचार तो इतना तीव्र था कि वह हर जगह अपने ही किस्से सुनाता। नदी किनारे जाकर बताता कि उसने मछलियों के झगड़े सुलझाए; पहाड़ी पर जाकर कहता कि उसने गिद्ध और बाज़ के बीच की खींचतान रोकी; और यहाँ तक कि फूलों-फलों की सभा में भी बोलता कि उसने मधुमक्खियों और तितलियों की दुश्मनी को खत्म किया। हालाँकि सच्चाई यह थी कि वह हर विवाद की जड़ भी वही था। लेकिन उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। उसकी सोच थी—“इतिहास विजेताओं को याद रखता है, घटनाओं को नहीं। अगर मुझे नोबेल मिल गया तो बाकी सब बातें महत्वहीन हो जाएँगी।” और सच पूछिए तो बन्दर की यह मानसिकता हमारे समाज की ही झलक थी, जहाँ अक्सर वही लोग शांति के ठेकेदार बनकर उभरते हैं जो असल में सबसे ज़्यादा अशांति के कारोबारी होते हैं। जंगल के समझदार जीव, जैसे हाथी और उल्लू, सब समझते थे कि बन्दर की असली मंशा क्या है, लेकिन वे खुलकर कुछ नहीं बोलते थे। हाथी सोचता—“अगर मैंने कुछ कहा तो यह मेरी सूँड़ पकड़कर मुझे भी शांति-विरोधी घोषित कर देगा।” उल्लू सोचता—“रात को भले ही मैं सब देख लेता हूँ, लेकिन दिन में जब बन्दर अपनी सभाएँ करता है तो मेरी कोई सुनता ही नहीं।” उधर छोटे-छोटे जीव बन्दर की हरकतों से मनोरंजन करते। गिलहरी खिलखिलाकर कहती—“देखो-देखो, नोबेल वाला फिर पेड़ से गिरा!” तोता कहता—“लो भई, जिसने हमें झगड़वाया था, वही अब हमारा उद्धारक बनकर भाषण दे रहा है।” लेकिन बन्दर पर इन बातों का कोई असर नहीं होता था। वह हर बार गिरकर भी उठता और घोषणा करता—“गिरना तो महान लोगों की पहचान है। मैं गिरकर उठता हूँ, इसलिए महान हूँ।” इस तरह जंगल का माहौल दिन-ब-दिन विचित्र होता जा रहा था। असली मुद्दे—जैसे भालू और बाघ की पुरानी दुश्मनी, जंगल में जल की कमी, जानवरों की सुरक्षा—सब पीछे छूट गए थे, और आगे बढ़ गई थी बन्दर की ‘नोबेल यात्रा’। वह हर सभा में भाषण देता, हर विवाद को अपनी उपलब्धि में गिनता, और हर जानवर से कहता—“तुम्हें शांति चाहिए तो मेरे लिए शांति नोबेल माँगो।” सच कहा जाए तो पूरा जंगल उसकी महत्वाकांक्षा के बोझ तले दबता जा रहा था। यह वही विडम्बना थी जो हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि कहीं यह कहानी केवल जंगल की तो नहीं, बल्कि हमारे समाज की भी परछाई है—जहाँ उछलकूद और चालाकी को अक्सर शांति और महानता के प्रतीक के रूप में बेचा जाता है।
लेकिन जंगल में शांति की राह इतनी आसान कहाँ थी, मानो शांति कोई बेलपत्र हो जो आसानी से मिल जाए और हर कोई अपने माथे पर सजा ले; असलियत यह थी कि जंगल की सबसे बड़ी मुश्किल थी—भालू और बाघ की लड़ाई, और वह लड़ाई ऐसी थी कि मानो दो पहाड़ आपस में टकरा रहे हों। दोनों पुराने दुश्मन थे, दुश्मनी भी ऐसी कि पुरानी पीढ़ियों की कहानियों में उसका जिक्र आता था—कभी किसी गुफा पर कब्ज़े को लेकर, कभी शिकार के हिस्से को लेकर, तो कभी जंगल में अपनी-अपनी बादशाहत के दावों को लेकर। समय बदलता गया, लेकिन उनके दिलों में भरा हुआ ज़हर वही रहा। दोनों एक-दूसरे को देखते ही जैसे खून खौलने लगता था, आँखें लाल हो जातीं, नाखून और दाँत बाहर निकल आते, और पूरे जंगल में डर का माहौल बन जाता। लाख कोशिशें करके भी कोई इन्हें शांत नहीं करा पाया था—कभी शेर की दहाड़ ने बीच-बचाव करने की कोशिश की, कभी हाथी ने अपनी सूँड़ से दोनों को अलग खींचा, कभी उल्लू ने अपनी बुद्धि से समझाने का प्रयास किया, लेकिन सब व्यर्थ। बन्दर महाराज ने भी अपनी तरफ से कई बार कोशिश की, क्योंकि उसके मन में तो यह बैठा ही था कि अगर भालू-बाघ की दुश्मनी खत्म न हुई तो उसकी “शांति-दूत” की छवि धरी की धरी रह जाएगी, और नोबेल पुरस्कार का सपना तो जंगल की झाड़ियों में खो जाएगा। वह कभी भालू के सामने जाकर बड़ी मीठी ज़बान में कहता—“देखो भालू भाई, तुम तो शहद खाते हो, रसगुल्ला-से नरमदिल हो। यह लड़ाई तुम्हें शोभा नहीं देती। आओ बाघ से हाथ मिलाओ और सारे जंगल को यह संदेश दो कि अब पुराने झगड़े खत्म, अब नया दौर शुरू।” लेकिन भालू उस पर गरज पड़ता—“हाथ मिलाऊँ? इसकी गर्दन दबाऊँगा! यह रोज़ मेरी गुफा के सामने घूम-घूमकर मुझे उकसाता है, मेरी शांति भंग करता है, और तू कहता है हाथ मिलाओ?” भालू की इस प्रतिक्रिया से बन्दर की सारी योजनाएँ धरी की धरी रह जातीं। फिर बन्दर बाघ के पास जाता और कहता—“बाघ भाई, तुम तो जंगल के शेर से कम नहीं, सब तुम्हारे नाम से काँपते हैं, अब तुम क्यों इस भालू से लड़ाई में अपनी इज़्ज़त खराब करते हो? अगर तुम दोनों गले मिल जाओ तो जंगल का माहौल सुधर जाएगा और सब तुम्हें असली शांति का हीरो मानेंगे।” लेकिन बाघ की दहाड़ और भी भयंकर हो उठती—“बन्दर भाई, यह भालू बड़ा अहंकारी है। खुद को जंगल का राजा समझता है। मुझे तो असली राजा मानो। जब तक मैं इसके पेट की चर्बी नोचकर अपने पंजों में नहीं मसलूँगा, तब तक चैन कैसे मिलेगा? बीच-बचाव मत करना, वरना तेरा हाल भी अच्छा नहीं होगा।” यह सुनकर बन्दर का माथा ठनक जाता, उसकी आँखों के सामने नोबेल की चमचमाती मूरत धुंधली पड़ जाती और वह सोचने लगता—हे दैव, अगर ये दोनों आपस में लड़ते रहेंगे तो मेरी शांति-छवि कहाँ से बनेगी? नोबेल का सपना तो धरा का धरा रह जाएगा। वह समझ नहीं पाता कि दोनों में से किसे मनाए, किसे छोड़ दे, और किसे अपना सहयोगी बनाए। उसकी दुविधा यह थी कि वह न तो भालू को नाराज़ कर सकता था, न ही बाघ को। और सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि बाघ के पीछे खड़ा था हाथी—जंगल का सबसे ताकतवर जीव। हाथी की खामोशी ही बन्दर के लिए सबसे बड़ा डर बन गई थी। वह सोचता—अगर मैंने बाघ को रोकने की ज़्यादा कोशिश की तो हाथी मेरी तरफ़ मुड़ जाएगा और मेरी सारी नोबेल की महत्वाकांक्षा एक सूँड़ के झटके में उड़ जाएगी। लेकिन अगर वह भालू को न रोके तो जंगल के दूसरे जीव कहेंगे कि बन्दर शांति का ठेकेदार होने के बजाय पक्षपाती है। यही उलझन थी कि हर कोशिश के बाद भी बन्दर की सारी कूटनीति धराशायी हो जाती। एक ओर भालू की गुर्राहट थी, दूसरी ओर बाघ की दहाड़ थी, और बीच में नोबेल की चमकती मूरत थी, जिसे पाने के लिए बन्दर हर दिन पेड़ की ऊँची डाल पर बैठकर सपने देखता। लेकिन हर बार जब वह भालू और बाघ को भिड़ते देखता, उसकी आत्मा काँप जाती—शांति कहाँ? नोबेल कहाँ? और मेरी सारी मेहनत कहाँ? इस तरह जंगल की राजनीति की असली परीक्षा यहीं थी—जहाँ शांति की सबसे बड़ी बाधा वही दो जीव थे जिनकी दुश्मनी की आंच पूरे जंगल को जलाती थी और बन्दर की महत्वाकांक्षा को हर बार राख कर देती थी।
जंगल की राजनीति के इस अजीबोगरीब खेल में एक और संकट सिर पर मंडरा रहा था—हाथी। हाथी कोई साधारण प्राणी नहीं था, वह ताकत और स्थिरता का प्रतीक माना जाता था, और उसके बाघ से पुराने संबंध सबको पता थे। जंगल का हर जीव जानता था कि अगर हाथी किसी पर नाराज़ हो जाए तो उसका बचना नामुमकिन है, क्योंकि हाथी की गड़गड़ाहट और सूँड़ का एक झटका किसी भी चालाकी, किसी भी राजनीति और किसी भी कूटनीति को चकनाचूर करने के लिए पर्याप्त था। बन्दर को इस बात का गहरा अहसास था और यही कारण था कि वह भीतर से हमेशा हाथी से डरा रहता था। कभी-कभी जब बन्दर अपनी आदत के मुताबिक ऊँची डाल पर बैठकर नीचे झाँकता तो देखता कि हाथी बाघ के साथ खड़ा है। यह दृश्य उसके दिल में एक अलग ही तरह की घबराहट पैदा कर देता। उसकी आँखों में भय की चमक तैर जाती और वह अपने आप से बुदबुदाने लगता—“हे भगवान! अगर यह हाथी एक बार मेरी तरफ मुड़ गया तो मेरी सारी नोबेल योजनाएँ, मेरी सारी घोषणाएँ, मेरे सारे शांति-सम्मेलन, सब कुछ गटर में चला जाएगा। उसकी सिर्फ एक सूँड़ का झटका मेरे पूरे करियर, मेरी बनाई हुई छवि और मेरी नाटकीय सभाओं को ध्वस्त कर देगा।” यह विचार उसे भीतर तक हिला डालता। बन्दर जानता था कि उसकी ताकत सिर्फ शोर और तमाशे तक सीमित है, जबकि हाथी की ताकत ठोस और वास्तविक है। यही अंतर उसे बार-बार याद दिलाता कि अगर शक्ति और धैर्य वाला हाथी उसके खिलाफ खड़ा हो गया तो उसकी सारी राजनीति सिर्फ खोखले नारों में बदल जाएगी।
फिर भी, बन्दर का स्वभाव ऐसा था कि वह डर के बावजूद अपनी अकड़ और नाटकबाज़ी से बाज नहीं आता। भीतर से काँपते हुए भी वह ऊपरी तौर पर बहादुरी का मुखौटा पहनकर हाथी पर तंज कसता। वह डाल से झूलते हुए चिल्लाता—“देख रहे हो हाथी महाराज! तुम अगर बाघ का साथ दोगे तो मैं तुम्हें भी शांति-विरोधी घोषित कर दूँगा। फिर देखना, दुनिया भर में तुम्हारी नाक कट जाएगी, तुम्हारी इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी और तुम्हारा नाम अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कलंकित हो जाएगा।” बन्दर जानता था कि हाथी को दुनिया भर में उसकी शांति-प्रिय छवि के लिए सम्मान मिलता है। वह सोचता कि अगर मैं इसे बदनाम कर दूँ तो शायद यह मेरे सामने झुक जाएगा। पर सच्चाई यह थी कि हाथी उस पर हँस देता था—धीरे से मुस्कराता और चुप हो जाता। यही चुप्पी बन्दर को और बेचैन कर देती। क्योंकि बन्दर का पूरा खेल शोर और प्रतिक्रिया पर टिका था। उसे सामने वाले से बहस, झगड़ा और प्रतिवाद चाहिए होता था ताकि वह अपनी नाटकबाज़ी को लंबा खींच सके। लेकिन हाथी जब मुस्कराकर चुप हो जाता, तो बन्दर की सारी स्क्रिप्ट फेल हो जाती। उसे लगता मानो उसकी सारी ऊर्जा सूख गई हो और उसका तमाशा अधूरा रह गया हो।
इस चुप्पी में बन्दर के लिए सबसे बड़ा खतरा छिपा था। हाथी की खामोशी उसे डराती थी, क्योंकि यह खामोशी गहरी थी—तूफान से पहले की खामोशी। बन्दर समझ नहीं पाता था कि हाथी की यह मुस्कराहट और चुप्पी किस ओर इशारा कर रही है। क्या यह सहमति है? क्या यह उपेक्षा है? या फिर यह किसी बड़े प्रहार की तैयारी है? यही अनिश्चितता बन्दर के लिए सबसे भारी पड़ती। बन्दर अक्सर अकेले में सोचता—“काश यह हाथी चिल्ला देता, विरोध करता, कुछ कहता तो मैं भी अपने पुराने अंदाज़ में उसे नीचा दिखाने के लिए नारे लगाता और प्रेस कांफ्रेंस करता। लेकिन यह मौन! यह तो मेरे लिए असहनीय है। यह मौन मेरे तमाशे की मौत है।”
हाथी के बाघ से पुराने रिश्ते भी बन्दर के दिल में खटकते थे। उसे लगता था कि बाघ और हाथी की जोड़ी अगर एक हो गई तो फिर उसका सारा खेल खत्म हो जाएगा। जंगल में मेहनतकश घोड़े, गाय-बैल और निश्चल हिरन सब हाथी को मान देते थे। अगर हाथी बाघ का समर्थन करता रहा तो धीरे-धीरे पूरा जंगल उसी ओर झुक जाएगा और बन्दर की ऊँची-ऊँची घोषणाएँ और छलांगें किसी को आकर्षित नहीं करेंगी। बन्दर का डर सिर्फ व्यक्तिगत नहीं था, बल्कि राजनीतिक भी था। उसे लगता था कि उसकी अंतरराष्ट्रीय पहचान, उसके विदेशी पुरस्कार और उसके दिखावटी मंच सब हाथी की एक गड़गड़ाहट के आगे फीके पड़ जाएँगे।
लेकिन बन्दर की प्रवृत्ति यही थी कि वह भय को भी तमाशे में बदल देता। वह अपने डर को छुपाने के लिए और ज़ोर से चिल्लाता। “हाथी महाराज! तुम्हें मैं चेतावनी देता हूँ। अगर तुम बाघ के साथ दिखे तो मैं तुम्हें जंगल का गद्दार घोषित कर दूँगा। तुम्हारी सूँड़ चाहे जितनी मज़बूत हो, मेरी आवाज़ उससे कहीं ज़्यादा दूर तक गूँजती है।” यह कहते हुए बन्दर भीतर ही भीतर काँप जाता, क्योंकि उसे पता था कि आवाज़ गूँज सकती है, लेकिन जब हाथी कदम बढ़ाता है तो पूरा जंगल हिल जाता है।
जंगल के छोटे जानवर इस पूरे नज़ारे को मज़े से देखते। वे जानते थे कि बन्दर की सारी अकड़ सिर्फ ऊपरी है। असलियत में बन्दर हाथी के नाम से ही घबरा जाता है। वे फुसफुसाते—“देखो-देखो, बन्दर फिर से हाथी को धमका रहा है। लेकिन हाथी की चुप्पी ही इसकी पोल खोल रही है।” वास्तव में, हाथी की वही मुस्कराहट बन्दर की सबसे बड़ी हार थी। यह मुस्कान बन्दर के आत्मविश्वास को कुतरती और उसे अपने ही शोर में डुबो देती। बन्दर बार-बार ऊँची डालों पर चढ़कर अपनी योजनाओं की घोषणा करता, शांति और क्रांति के नए-नए नारे लगाता, लेकिन भीतर से वह हमेशा यही डर पालता कि कहीं एक दिन हाथी सचमुच उसकी ओर मुड़ न जाए और उसकी सारी कूटनीति धराशायी न हो जाए। बन्दर का जीवन एक विडंबना में बदल गया था। ऊपर से वह साहस और विद्रोह का प्रतीक बनकर हाथी को ललकारता, लेकिन भीतर से हाथी की चुप्पी और बाघ से उसकी नज़दीकी का आतंक उसे चैन से जीने नहीं देता था। उसका पूरा खेल इसी डर और ढोंग पर टिका था—एक ऐसा खेल, जहाँ हाथी की मुस्कराहट ही सबसे बड़ा संकट बन चुकी थी।
अब बन्दर ने सोचा कि अगर सीधी कोशिशों से शांति नहीं आ रही तो क्यों न कोई चालाकी की जाए, और उसने एक नई चाल चली। उसकी योजना साफ़ थी—पहले जंगल के अलग-अलग जानवरों को आपस में भिड़ाओ, उनके बीच झगड़े का माहौल बनाओ, और जब उनकी चीख-पुकार चरम पर पहुँचे तो खुद बीच में कूदकर पंच बनो, शांति का संदेश दो, और इस तरह सबको यह यकीन दिलाओ कि जंगल का असली शांति-दूत वही है। धीरे-धीरे उसकी इस नई रणनीति ने काम करना शुरू कर दिया। कभी उसने तोते और कौवे को बेवजह लड़वा दिया—तोता “टांय-टांय” करता और कौवा “कांव-कांव” करके उसकी टक्कर लेता। पूरा जंगल इस अजीबोगरीब बहस से गूँज उठता। तभी बन्दर बीच में आकर हाथ फैलाकर बोला—“बस करो भाइयों! शांति रखो। देखो, हम सबको मिलकर रहना चाहिए। अब झगड़े की जगह मिलकर शांति गीत गाओ।” तोता और कौवा हक्के-बक्के रह जाते, झगड़े का कारण भूल जाते, और बन्दर का शांति-भाषण सुनकर ऐसा जताने लगते मानो वे सचमुच सुधर गए हों। कभी उसने खरगोश और कछुए को दौड़ की पुरानी कहानी सुना-सुनाकर फिर से भिड़ा दिया। दोनों दौड़ने लगे, खरगोश चिल्लाता—“मैं जीतूँगा,” और कछुआ धैर्य से धीरे-धीरे बढ़ता। फिर बन्दर बीच में कूद पड़ा और बोला—“अरे यह हार-जीत का मामला नहीं है, यह दोस्ती का मामला है। अब गले मिलो और मेरी शांति सभा में आओ।” इस तरह धीरे-धीरे जंगल में यह छवि बनने लगी कि बन्दर सचमुच झगड़े सुलझाता है और सबको जोड़ता है। जानवर आपस में कहने लगे—“देखो, यह बन्दर ही है जो हर विवाद को सुलझा देता है। शायद यही असली शांति-दूत है।” बन्दर का सीना चौड़ा होने लगा। लेकिन हकीकत यह थी कि जंगल की सबसे बड़ी समस्या, यानी भालू और बाघ की पुरानी लड़ाई, जस की तस बनी हुई थी। उसकी छोटी-मोटी कोशिशें काम कर रही थीं, लेकिन मूल संकट वहीं का वहीं था।
शाम को जब सारे जानवर अपने-अपने घरों में आराम कर रहे होते, तब बन्दर अकेले पेड़ की सबसे ऊँची डाल पर जाकर बैठता और सपनों में खो जाता। वह आँखें बंद कर कल्पना करता—“जब मुझे शांति नोबेल मिलेगा तो पूरा जंगल मेरी जय-जयकार करेगा। चारों तरफ मेरी मूर्तियाँ लगेंगी। बच्चे-बूढ़े सब मेरे नाम के नारे लगाएंगे। हर जानवर मेरी नकल करेगा, मेरी तरह उछल-कूद करेगा, और मैं इतिहास के पन्नों में अमर हो जाऊँगा।” उसकी आँखों में एक चमक आ जाती, और कभी-कभी वह इतनी तल्लीनता से सपने देखता कि डाल से फिसलकर धड़ाम से नीचे गिर पड़ता। बाकी जानवर यह देखकर ठहाका लगाते—“लो, शांति नोबेल वाले महाराज फिर गिर पड़े!” लेकिन बन्दर पर इसका कोई असर नहीं पड़ता। वह अपनी चोट झाड़ता, उठकर फिर से डाल पर चढ़ता और कहता—“गिरना तो महान लोगों की पहचान है। मैं तो गिरकर उठता हूँ, इसलिए बड़ा हूँ। नोबेल मेरी ही किस्मत में लिखा है।”
लेकिन हकीकत सपनों से कहीं ज़्यादा कठिन थी। समय बीतता गया और भालू-बाघ की लड़ाई और भी भयानक होती चली गई। जंगल का हर कोना उनकी दहाड़ों और गुर्राहट से काँपता। बन्दर ने हजार कोशिशें कीं। उसने पंचायत बुलाई—जहाँ उसने लंबा-चौड़ा भाषण दिया और पोस्टर लगाए—“शांति से बढ़कर कुछ नहीं।” उसने शांति यात्रा निकाली—जिसमें खुद ही नारे लगाता और बाकी जानवर मजबूरी में उसके साथ चल देते। उसने पेड़ों पर रंग-बिरंगे बैनर लटकाए—“नो वॉर, ओनली पीस।” लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। भालू और बाघ एक-दूसरे को देखते ही ऐसे भिड़ जाते जैसे उनकी दुश्मनी दुनिया की सबसे पुरानी किताब में दर्ज हो। बन्दर की सारी कोशिशें उनके सामने हवा हो जातीं।
धीरे-धीरे उसके मन में नाउम्मीदी का बादल छा गया। हर ओर से उसे असफलता ही दिखने लगी। वह सोचता—“अगर इस बार शांति स्थापित नहीं हुई तो मेरा सपना अधूरा रह जाएगा। पुरस्कार किसी और को चला जाएगा। और मैं फिर से सिर्फ एक उछलकूद करने वाला बंदर रह जाऊँगा।” उसकी आँखों से सपनों की चमक धीरे-धीरे धुंधली पड़ने लगी। पहले जहाँ वह हर शाम सपनों में खुद को मूर्ति और जय-जयकार के बीच देखता था, अब वहाँ एक काली धुंध छा जाती थी। उसे लगता था कि नोबेल की रोशनी दूर कहीं बुझ रही है और उसकी पहुँच से बाहर जा रही है। इस हताशा ने उसे बेचैन कर दिया। वह डाल पर बैठे-बैठे अपने सिर को पकड़कर झूलता और सोचता—“आखिर मैं कहाँ कमी छोड़ रहा हूँ? इतने शांति नारे, इतने आयोजन, इतने बैनर, और फिर भी सफलता नहीं! कहीं दुनिया मुझे धोखा तो नहीं देने वाली? कहीं यह पुरस्कार किसी चालाक खरगोश, किसी चतुर लोमड़ी या किसी और दंभहीन जानवर के हिस्से में तो नहीं चला जाएगा?”
यह विचार उसे भीतर से खा जाते। उसका आत्मविश्वास डगमगाने लगा। उसने महसूस किया कि उसकी सारी रणनीतियाँ सतही थीं और असली संकट को छू भी नहीं पा रही थीं। जंगल के जानवर उसकी नौटंकी से बोर होने लगे थे। जो पहले उसे “शांति-दूत” कहकर हँसते-खेलते मज़ाक में समर्थन देते थे, अब धीरे-धीरे उसकी सभाओं में कम दिखने लगे। इस उपेक्षा ने उसके भीतर खालीपन और गहरा कर दिया। उसे लगने लगा कि उसका तमाशा अब फीका पड़ रहा है और उसका नोबेल का सपना भी। यह नाउम्मीदी उसके लिए उतनी ही भारी थी जितनी किसी असली लड़ाई का बोझ। और अब वह तय नहीं कर पा रहा था कि अगले कदम पर वह और भी ज़ोर से उछले, या चुपचाप किसी डाल पर जाकर रो ले।
बन्दर ने अपनी आदत के अनुसार आखिरी दाँव खेलने की ठानी। अब तक वह तरह-तरह की कलाबाज़ियाँ दिखाकर, ऊँची-ऊँची आवाज़ों में "शांति-शांति" का नारा लगाकर जंगल में अपनी अलग पहचान बना चुका था। मगर इतने शोर-शराबे के बाद भी उसे कोई पुरस्कार नहीं मिला। भीतर-भीतर वह जल रहा था—“मेरे बिना ये जंगल कैसा? अगर मैं चिल्लाना बंद कर दूँ, तो इस शांति-शांति का सारा ढोल पिटना ही रुक जाएगा।” यही सोचकर उसने ठान लिया कि अब वह सीधे सत्ता के केंद्र तक पहुँचेगा।
जंगल में पुरस्कार बाँटने का अधिकार शेर महाराज के पास था, और उनकी सारी नीतियाँ तथा आदेश बिल्ला मंत्री के जरिये लागू होते थे। बन्दर ने अपनी जेब से मोबाइल निकाला—जंगल में यह नया फैशन चल पड़ा था। जिसने भी थोड़ा असर-रसूख जमा लिया, वह मोबाइल पर ही अपने काम निकालता था। उसने नंबर मिलाया और कॉल सीधा बिल्ले को लगाया। “हैलो बिल्ले जी! मैं बन्दर बोल रहा हूँ,” उसने घमंडी लहजे में कहा।
बिल्ले ने आश्चर्य से पूछा—“हाँ हाँ, बोलो बन्दर भाई, इतनी जल्दी-जल्दी क्यों साँस फूल रही है?”
बन्दर ने लंबी साँस खींचकर कहा—“सुन लो साफ़-साफ़, बहुत हो गया। इतने दिन से मैं गला फाड़-फाड़कर शांति-शांति चिल्ला रहा हूँ। पेड़ों से लटक-लटककर सबको समझा रहा हूँ कि यही असली भलाई है। लेकिन न तो मुझे कोई पुरस्कार मिला और न ही मेरी मेहनत की कदर। अब बस, और बर्दाश्त नहीं।”
बिल्ला हँसने की कोशिश करता हुआ बोला—“तो इसमें धमकी कैसी? पुरस्कार तो सबको उनकी काबिलियत से मिलता है।”
बन्दर की आवाज़ अचानक तेज़ हो गई—“धमकी नहीं दे रहा, हकीकत बता रहा हूँ। जंगल में असली शांति-दूत अगर कोई है तो वह मैं हूँ। सब जानवर मेरी आवाज़ पर ध्यान देते हैं। मेरे पीछे-पीछे भीड़ जमा हो जाती है। अगर आज मुझे अनदेखा किया गया, तो कल मैं यही भीड़ शेर महाराज के ख़िलाफ़ भड़का दूँगा। सोच लो, तब उनकी गद्दी भी खतरे में पड़ सकती है।”
यह सुनते ही बिल्ले का दिल धक से रह गया। वह भीतर ही भीतर सोचने लगा—“सचमुच यह बन्दर तो खतरनाक होता जा रहा है। इसकी हरकतें भले ही उटपटांग लगें, लेकिन जंगल में इसे सुनने वालों की कमी नहीं। अगर यह वाकई सबको भड़का दे, तो महाराज की सत्ता डगमगा सकती है।”
बिल्ला लंबे समय तक चुप रहा। उसने सोचा कि बन्दर की मांग को पूरी तरह नज़रअंदाज़ करना खतरनाक होगा। क्योंकि ऐसे लोग शोर मचाकर माहौल बिगाड़ने में उस्ताद होते हैं। इनसे उलझना यानी और बड़ी मुसीबत मोल लेना। उसने सोचा—“राजनीति का यही नियम है कि शोर मचाने वाले को थोड़ा बहुत देकर चुप करा दो। इससे उसका मुँह भी बंद हो जाएगा और सत्ता की साख भी बची रहेगी।”
उधर बन्दर अपने फोन के स्पीकर पर ही कूद-फाँद करता हुआ इंतज़ार कर रहा था। उसे भरोसा था कि उसकी बात का असर ज़रूर होगा। और सच यही था—बिल्ला अब उसके आगे झुकने के बारे में सोचने लगा था।
इस तरह बन्दर ने चालाकी से अपना दाँव खेला। जो पुरस्कार उसके काबिलियत से न मिल सकता था, उसे अब वह शोर-शराबे और धमकी के दम पर हासिल करने की राह पर था। यही जंगल की राजनीति का नया सच था—जिसका गला सबसे ऊँचा, उसी के हाथ सबसे बड़ा पुरस्कार।