धन्य हैं हिंदी वाले – शोध, सेल्फी और समोसे

यह व्यंग्यात्मक कथा प्रेमचंद के नाम पर स्थापित एक उपेक्षित शोध संस्थान की सफाई के बहाने हिंदी अकादमिक दुनिया की सच्चाई पर करारा व्यंग्य है। वर्षों बाद झाड़ू चलने से प्रेमचंद की आत्मा जागती है और वह आज के शोध, गोष्ठियों और प्रमाणपत्रों की खोखली दुनिया पर तीखी टिप्पणी करती है।

व्यंग्य

उज्जवल कुमार सिंह

7/25/2025

वर्षों से बंद पड़ा प्रेमचंद स्मारक शोध संस्थान अचानक जैसे जीवन पा गया। सूखे पत्तों से ढँकी उसकी सीढ़ियाँ, टपकती छत, उखड़ी दीवारें और जंग खाए ताले इतने वर्षों से जैसे अपने ऊपर आए मौन को ओढ़े हुए थे। यह वह संस्थान था, जिसकी नींव रखते हुए भाषाविदों ने घोषणा की थी कि यह ‘हिंदी का वेटिकन’ बनेगा, जहाँ प्रेमचंद जैसे साहित्यिक महायोद्धा के विचारों पर गंभीर शोध और विमर्श होंगे। किंतु दशकों के सरकारी उपेक्षा और शैक्षणिक राजनीति के बाद यह स्थान अब कबाड़ का गोदाम या पुराने फर्नीचर का संग्रहालय बन चुका था। वहाँ किताबों की जगह दीमकों का साम्राज्य था और शोधार्थियों की जगह चूहों ने स्थायी निवास बना लिया था। लेकिन उस दिन एक चमत्कारी घटना हुई। विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा नगर निगम को भेजे गए एक आदेश के चलते शहरी स्वच्छता अभियान शुरू हुआ था। इस सफाई अभियान के प्रभारी बने—श्रीमान शुक्ला जी—जो वर्षों से विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं और जिनकी पहचान ‘गलती से सही जगह पहुँच जाने वाले’ कर्मचारियों में होती है। शुक्ला जी के साथ एक युवा अनुचर भी था, जिसे इस इलाके में पहली बार लाया गया था। अनुचर ने शुक्ला जी से पूछा, “बाबू जी, ई बोर्डवा पर का लिखा है?” शुक्ला जी ने चश्मा पोंछते हुए ऊपर देखा और हँसते हुए बोले, “ई! अरे, ये त प्रेमचंद के नाम पर बना ‘शोध संस्थान’ है। लेकिन अब यहाँ न शोध होता है न संस्थान बचा है। चल बेटा, फोटो खींच ले, बहुत दिनों बाद सफाई हो रही है।”

शुक्ला जी ने झाड़ू निकाली और बड़े गर्व से ‘प्रेमचंद स्मारक शोध संस्थान’ की जर्जर पट्टी पर पहला झटका दिया। वर्षों से जमी धूल उड़ी, जैसे इतिहास अपने जर्जर पन्नों को खोलने लगा हो। झाड़ू की यह पहली चोट प्रेमचंद की आत्मा तक जा पहुँची। स्वर्गलोक के कोने में शांत बैठे प्रेमचंद ने अचानक काँपती हुई मूँछों से आँखें खोल दीं। आत्मा कुछ देर स्तब्ध रही, फिर धैर्य नहीं रहा। उन्होंने यमराज से विशेष अनुमति ली और स्वर्गीय साहित्य परिषद से अस्थायी अवकाश लेकर धरती की ओर झाँकना शुरू कर दिया।

आत्मा का पहला संवाद आया—“कौन है रे ये जो मेरे नाम की पट्टी को साफ कर रहा है? इतने वर्षों तक किसी ने झाँका तक नहीं… अब क्या प्रेमचंद पुरस्कार का फार्म खुल गया है या फिर किसी हिंदी सम्मेलन का जलपान यहीं होने वाला है?” आत्मा ने अपने अनुभव से निष्कर्ष निकाला—“लगता है किसी प्रोफेसर को पेंशन नहीं मिली होगी या कोई हिंदी दिवस नज़दीक होगा!” प्रेमचंद जी की आत्मा ने अपनी ऊँगली से माथा खुजाया, फिर दूरबीन से झाँकने लगे—शुक्ला जी लगातार झाड़ू मार रहे थे, और अनुचर बीच-बीच में वीडियो बना रहा था।

प्रेमचंद जी की आत्मा को यह देखकर और भी आश्चर्य हुआ कि शोध संस्थान के बाहर हिंदी विभाग के दो-तीन प्रोफेसर अपनी-अपनी पीठ ठोक रहे थे, मानो उन्होंने ही महाकाव्य लिखा हो। इनमें सबसे आगे थे प्रोफेसर पाण्डेय जी, जो वर्षों से प्रेमचंद पर शोध कराने का दावा करते रहे हैं—हालाँकि उनका अधिकतर शोध ‘संदर्भ सूची’ और छात्रों से लिखवाए गए नोट्स पर आधारित था। पाण्डेय जी बोले, “मैंने ही कुलपति जी को इस संस्थान की दुर्दशा के बारे में लिखा था… प्रेमचंद के प्रति हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी है।” यह कहते हुए उन्होंने प्रेमचंद की प्रतिमा के पास खड़े होकर तस्वीर खिंचवाई और व्हाट्सएप स्टेटस पर डाला—"प्रेमचंद को नमन — हिंदी साहित्य की अमर धरोहर"। दूसरी ओर प्रोफेसर त्रिवेदी ने अपना ब्लूटूथ स्पीकर निकाला और 'ईदगाह' की पंक्तियाँ पढ़नी शुरू कर दीं—"हामिद के पास तीन पैसे हैं…" जबकि खुद के पास पंद्रह हज़ार रुपये का तो सिर्फ जूता था।

प्रेमचंद की आत्मा अब और असहज हो चली थी। वह सोचने लगे—“क्या इसी दिन के लिए मैंने ‘सोज़े वतन’ लिखा था? क्या इसलिए ‘गोदान’ में होरी को पसीना बहाते दिखाया था कि मेरी मूर्ति पर कोई स्मार्टफोन के फ़िल्टर लगाकर सेल्फी ले?” आत्मा ने एक बार फिर झाँककर देखा—शोध संस्थान के बंद दरवाज़ों के पास ‘शोध छात्र प्रवेश निषेध’ का नया बोर्ड टँगा था। यानी अब यह संस्थान शोध के लिए नहीं, केवल स्मृति-व्यवहार और भाषण-प्रसार के लिए खुला था।

इसी क्षण शुक्ला जी ने वह किया जो अब तक किसी ने नहीं किया था—उन्होंने प्रतिमा के पास रखी मुरझाई हुई माला को हटाया और ताज़ी फूलों की माला चढ़ा दी। यह देखकर प्रेमचंद की आत्मा कुछ क्षणों के लिए शांत हुई। पर जैसे ही उन्होंने देखा कि एक युवा छात्रा अपनी Instagram Reel के लिए प्रेमचंद की प्रतिमा के पास 'transition' बना रही है—प्रेमचंद जी फिर चिढ़ गए। बोले—“जिस भाषा में मैंने मजदूरों के दुःख, किसानों की पीड़ा और स्त्रियों की विवशता को शब्द दिए, उसी भाषा को अब ‘Filter’ और ‘Followers’ में बाँटा जा रहा है? मेरी आत्मा को शांति नहीं, संताप मिल रहा है।”

शुक्ला जी ने सफाई पूरी की और जैसे ही वह अपने झोले से बिस्कुट निकालकर चाय के साथ बैठने लगे, प्रेमचंद जी की आत्मा ने आह भरी—“कम-से-कम इनकी ईमानदारी तो असली है…! ये झाड़ू मारकर थकते हैं, कोई शोध-पत्र नहीं लिखते, लेकिन सफाई में सच्चे हैं। शायद आज प्रेमचंद की ज़रूरत साहित्य के मंचों पर नहीं, बल्कि इन झाड़ूवालों के बीच है।”

स्वर्गलोक लौटते समय आत्मा ने एक नोट लिखा: “अब यदि कोई मेरा नाम लेकर संस्थान बनाए, तो पहले उसके झाड़ू और चाय का इंतज़ाम तय करे… शोध और भाषण बाद में।”

शोध संस्थान की धूल ज्यों ही साफ़ हुई, भीतर बैठे वर्षों पुराने कुर्सियों और जाले भी जैसे अचानक सजग हो उठे। प्रोफेसर पाण्डेय को जैसे सदियों की साधना का पुरस्कार मिल गया। उन्होंने झटपट एक बैठक बुला ली और एक पोस्टर तैयार करवाया—"राष्ट्रीय संगोष्ठी : प्रेमचंद के साहित्य में अंतर्निहित समकालीन प्रासंगिकताएँ"। लेकिन अंदरखाने सबका उद्देश्य एक ही था—"सर्टिफिकेट मिलेगा या नहीं?"। संगोष्ठी का आयोजन संस्थान के सड़े हुए हॉल में नहीं, बल्कि विश्वविद्यालय के वातानुकूलित सेमिनार भवन में तय किया गया। इस बार विषयवस्तु से ज़्यादा ज़रूरी थी उद्घाटनकर्ता की पहचान। प्रो. पाण्डेय ने शिक्षा मंत्री के स्थानीय प्रतिनिधि को न्योता भेजा और साथ ही यह भी विनती की कि उद्घाटन भाषण में 'प्रेमचंद' शब्द तीन बार बोल दिया जाए—बाकी बातें राष्ट्र निर्माण पर केंद्रित रहें।

प्रेमचंद की आत्मा यह सब देख रही थी। उन्होंने ध्यान दिया कि मंच पर जिन प्रोफेसरों को बिठाया गया था, उनमें से आधों ने प्रेमचंद की मूल रचनाएँ कभी ठीक से पढ़ी नहीं थीं। किसी ने ‘गोदान’ का पहला चैप्टर नहीं पूरा किया, तो किसी ने ‘निर्मला’ को "अंधविश्वास की कहानी" कहकर निष्कर्ष निकाला। लेकिन सबके पास शोधपत्रों के ढेर थे—कुछ ने तो विदेशी लेखकों को उद्धृत कर ‘प्रेमचंद का पश्चिमी मनोविज्ञान’ खोज निकाला था। प्रोफेसर त्रिवेदी, जो अब हिंदी के साथ-साथ संस्कृति मंत्री की समिति के सलाहकार भी थे, बोले—

“प्रेमचंद की रचनाएँ वस्तुतः उत्तर-आधुनिक जातीय विमर्श की प्रयोगशाला हैं। होरी और गोबर के बीच जो संवाद है, वह किसान विमर्श की नहीं, अस्मिता विमर्श की अदृश्य रेखा है।”

प्रेमचंद की आत्मा ने सिर पकड़ लिया—“क्या यह वही होरी है, जो अपने बैल के मरने पर टूटा था? वही गोबर, जो बंबई गया था रोटी के लिए? इन लोगों ने तो मेरे पात्रों को शोध के ठेके पर बेच डाला!” आत्मा ने मंच के कोने में बैठे एक छात्र से बात करने की सोची—जिसके हाथ में नोटबुक थी और जो बेहद गंभीरता से सब सुन रहा था। लेकिन अफ़सोस! वह छात्र GATE का फॉर्म भरने में व्यस्त था, और उसका सेमिनार में आना केवल 5% अतिरिक्त अंक के कारण हुआ था।

संगोष्ठी के अंत में चाय और बिस्कुट का दौर चला। पाण्डेय जी ने रजिस्टर में सभी के दस्तखत करवाए और प्रतिभागिता प्रमाणपत्र बाँटते हुए बोले— “हम सब प्रेमचंद के साहित्यिक उत्तराधिकारी हैं। हमारी जिम्मेदारी है कि हम उनके विचारों को नयी पीढ़ी तक पहुँचाएँ।”

यह कहते हुए उन्होंने खुद को “नवप्रेमचंदीय परंपरा का वाहक” घोषित कर डाला। इस वक्तव्य पर मंच तालियों से गूँज उठा—हालाँकि अधिकतर लोग ताली बजाते हुए मोबाइल पर अपने होटल के खाने का मेनू देख रहे थे। किसी को प्रेमचंद से नहीं, प्रमाणपत्र और प्रतिष्ठा से मतलब था।

इसी क्षण प्रेमचंद की आत्मा ने अंतिम बार एक ठंडी साँस भरी। उन्होंने मंच पर बैठे सभी विद्वानों को गौर से देखा—कुछ ने प्रेमचंद को ‘हिंदी राष्ट्रवाद का जनक’ बताया, कुछ ने ‘दलित चेतना का पहला स्वर’, और एक साहसी विद्वान ने तो उन्हें ‘भारतीय पॉपुलर कल्चर का पूर्वज’ भी घोषित कर दिया। अब प्रेमचंद की आत्मा और नहीं सह सकी। उन्होंने मंच के पीछे लगे अपने ही चित्र को देखा, जिसके नीचे लिखा था—“लेखक वही, जो समय की नब्ज़ पकड़े।”

प्रेमचंद बुदबुदाए—“मैंने समय की नब्ज़ पकड़ी थी, लेकिन इन लोगों ने मुझे ब्रांड बना दिया—शब्दों का सौदागर, विमर्श का किरायेदार।” वापसी के समय आत्मा ने स्वर्ग के दरवाज़े पर यमदूत से कहा, “अब अगर कोई धरतीवासी मेरा नाम लेकर संस्थान बनवाए, तो पहले उसकी परीक्षा ली जाए—उससे ‘पूस की रात’ पढ़वाई जाए, ‘कफन’ समझाई जाए और जब वह इन पात्रों के आँसू महसूस कर ले, तभी उसे मेरी प्रतिमा के पास माला चढ़ाने दिया जाए।”

स्वर्ग में लौटते हुए प्रेमचंद की आत्मा के पीछे अब केवल एक वाक्य गूँज रहा था— “धन्य हैं हिंदी वाले—जिन्होंने मेरे नाम पर शोध तो किया, पर मेरे विचारों को शोध की चाय में डुबोकर पी गए।”

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