भाषा चिंतन की भारतीय अवधारणा और राहुल सांकृत्यायन
"भाषा चिंतन की भारतीय अवधारणा और राहुल सांकृत्यायन" विषयक पुस्तक अध्याय भारतीय भाषिक परंपरा के दार्शनिक और व्यावहारिक स्वरूप की विवेचना करता है। यह अध्याय वैदिक, पाणिनीय, बौद्ध और जैन भाषा चिंतन की पृष्ठभूमि में राहुल सांकृत्यायन के भाषिक दृष्टिकोण को विश्लेषित करता है। राहुल जी की भाषाओं के प्रति बहुभाषिकता, व्याकरण, लोकभाषा और वर्गहीन संवाद की पक्षधरता को रेखांकित करते हुए यह अध्याय उन्हें एक प्रगतिशील भाषा विचारक के रूप में स्थापित करता है।
पुस्तक अध्याय
उज्जवल कुमार सिंह
5/8/2024
भाषा चिंतन की भारतीय अवधारणा में भाषा को एक गहन और व्यापक दृष्टिकोण से देखा गया है। भारतीय दार्शनिक परंपरा में भाषा को न केवल संचार का माध्यम माना गया है, बल्कि इसे ज्ञान और अस्तित्व की अभिव्यक्ति का साधन भी समझा गया है। भारतीय अवधारणा में भाषा को केवल संचार का साधन न मानकर, उसे ज्ञान, दर्शन, और सांस्कृतिक पहचान का आधार माना गया है। भाषा चिंतन की यह व्यापक दृष्टि भारतीय समाज और संस्कृति की विविधता और गहराई को समझने में मदद करती है। वैदिक साहित्य में भाषा को "वाक्" के रूप में माना गया है, जिसे देवी सरस्वती का रूप भी कहा गया है। वैदिक मंत्रों और उपनिषदों में भाषा के माध्यम से ज्ञान की प्राप्ति पर विशेष बल दिया गया है। पाणिनि के "अष्टाध्यायी" को भाषा विज्ञान का अद्वितीय ग्रंथ माना जाता है। इसमें संस्कृत भाषा की संरचना और उसके नियमों का विश्लेषण बहुत ही वैज्ञानिक ढंग से किया गया है। पाणिनि ने ध्वनि, रूप, और वाक्य रचना के नियमों को परिभाषित किया है, जिससे भाषा की गहन समझ प्राप्त होती है। भारतीय दर्शन में "स्फोट सिद्धांत" के माध्यम से भाषा की व्याख्या की गई है। इस सिद्धांत के अनुसार, शब्द और अर्थ के बीच एक गहरा संबंध होता है, जिसे "स्फोट" कहा जाता है। स्फोट का मतलब वह आंतरिक ध्वनि है जो शब्दों के माध्यम से प्रकट होती है और अर्थ को समझने में मदद करती है। भक्ति साहित्य में भाषा को भावनाओं और आध्यात्मिक अनुभवों की अभिव्यक्ति का साधन माना गया है। संत कबीर, तुलसीदास, सूरदास आदि कवियों ने भाषा के माध्यम से गहन आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश दिए हैं। आधुनिक भारतीय भाषाशास्त्र में भाषा को एक सामाजिक संरचना के रूप में देखा जाता है, जो संस्कृति, पहचान, और विचारधारा का निर्माण करती है। भाषा को राजनीतिक दृष्टिकोण से भी देखा गया है, जहां यह सामाजिक बदलाव, सामाजिकीकरण, और राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
भाषा चिंतन की भारतीय अवधारणा एक गहन और बहुआयामी दृष्टिकोण पर आधारित है, जो भाषा को केवल संचार का माध्यम नहीं, बल्कि ज्ञान, संस्कृति, और आध्यात्मिकता के अभिव्यक्ति का साधन मानती है। भारतीय दर्शन और साहित्य में भाषा को 'वाक्' या 'शब्द' के रूप में देखा गया है, जो सृष्टि, विचार और ज्ञान के मूल में स्थित है। ऋग्वेद में "वाक्" को सृष्टि का आधार और देवताओं का वरदान माना गया है, जिससे स्पष्ट होता है कि भारतीय विचारधारा में भाषा का महत्व केवल व्यावहारिक नहीं, बल्कि दार्शनिक और धार्मिक भी है। भारतीय चिंतन में भाषा को चार स्तरों पर विभाजित किया गया है: परा, पश्यन्ती, मध्यमा, और वैखरी। परा भाषा का वह स्वरूप है, जो अंतर्मन में रहता है, पश्यन्ती वह है जो विचार के रूप में होती है, मध्यमा वह है जो वाणी में आती है, और वैखरी वह है जो स्पष्ट रूप में उच्चारित होती है। इस विभाजन से पता चलता है कि भारतीय दृष्टिकोण में भाषा एक बहुआयामी तत्व है, जो मानसिक, आध्यात्मिक, और भौतिक स्तरों पर अभिव्यक्त होती है। भाषा चिंतन की भारतीय अवधारणा में यह भी स्वीकार किया गया है कि भाषा समाज और संस्कृति का प्रतिबिंब होती है। संस्कृत जैसी क्लासिकल भाषाएँ भारतीय समाज के ज्ञान, विज्ञान, धर्म, और दर्शन की वाहक रही हैं। अन्य भाषाएँ, जैसे पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, और क्षेत्रीय भाषाएँ, समाज के विभिन्न वर्गों की भावनाओं, विचारों, और अनुभवों को व्यक्त करने का माध्यम बनीं। भारतीय दृष्टिकोण में भाषाओं का यह विविधता, समाज के विविधताओं को दर्शाता है और इसे एकता में बांधने का कार्य करता है।
भारतीय भाषा चिंतन का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यहाँ भाषाओं को एक-दूसरे से पृथक नहीं देखा गया, बल्कि उन्हें एक अंतःक्रियात्मक और संवादात्मक प्रक्रिया का हिस्सा माना गया। उदाहरणस्वरूप, संस्कृत ने अन्य भारतीय भाषाओं पर गहरा प्रभाव डाला और उनसे प्रभावित भी हुई। इसी प्रकार, हिन्दी, बंगाली, तमिल, और अन्य क्षेत्रीय भाषाएँ भी एक-दूसरे से संवाद करती रहीं, जिससे भारतीय भाषाओं का विकास एक साझा सांस्कृतिक धरोहर के रूप में हुआ। भारतीय भाषा चिंतन में बहुभाषिकता को एक स्वाभाविक और आवश्यक गुण माना गया है। भारतीय समाज में, एक व्यक्ति अक्सर एक से अधिक भाषाएँ बोलता और समझता है, जिससे भाषा संबंधी संवाद और आदान-प्रदान में आसानी होती है। यह बहुभाषिकता भारतीय समाज की सहिष्णुता, समावेशिता, और विविधता को भी दर्शाती है। भारतीय भाषाओं की यह विविधता और उनका सह-अस्तित्व भारतीय समाज के सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने को मजबूत बनाता है। अंततः, भाषा चिंतन की भारतीय अवधारणा में भाषा को एक जीवंत और गतिशील तत्व के रूप में देखा गया है, जो समाज के विकास और परिवर्तन के साथ-साथ स्वयं भी विकसित होती है। यहाँ भाषा को केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि एक जीवंत परंपरा का वाहक माना गया है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान, संस्कृति, और मूल्यों को संचारित करती है। भारतीय भाषा चिंतन हमें यह सिखाता है कि भाषा न केवल हमारी पहचान का हिस्सा है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर को भी संरक्षित करती है।
पाश्चात्य (पश्चिमी) अवधारणा में भाषा चिंतन को विभिन्न दार्शनिक, भाषावैज्ञानिक, और सामाजिक दृष्टिकोणों से समझा जाता है। पश्चिमी दुनिया में भाषा के अध्ययन ने एक गहन और विविध परंपरा को जन्म दिया है। पाश्चात्य अवधारणा में भाषा चिंतन एक व्यापक और बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाता है। यह भाषा की संरचना, व्याकरण, समाजिक उपयोग, और मानव मस्तिष्क में उसकी भूमिका को समझने का प्रयास करता है। पश्चिमी भाषाविज्ञान ने भाषा के अध्ययन में कई नई विधियों और सिद्धांतों का विकास किया है, जिससे भाषा को एक जटिल और बहुमुखी मानव क्षमता के रूप में समझने में मदद मिलती है। फर्डिनांड डी सॉस्यूर (Ferdinand de Saussure) को आधुनिक भाषाविज्ञान का जनक माना जाता है। उन्होंने भाषा को एक संरचना के रूप में देखा, जिसमें 'लैंग' (Langue) और 'पारोल' (Parole) का अंतर महत्वपूर्ण है। 'लैंग' भाषा की प्रणाली है, जबकि 'पारोल' भाषा का व्यक्तिगत उपयोग है। उन्होंने भाषा को संकेतों (Signs) के रूप में समझा, जिनमें 'संकेतक' (Signifier) और 'संकेतार्थ' (Signified) शामिल होते हैं।
नोम चॉम्स्की (Noam Chomsky) ने 20वीं सदी के मध्य में भाषाविज्ञान के क्षेत्र में क्रांति लाई। उन्होंने भाषा को एक जैविक क्षमता माना और 'सार्वभौमिक व्याकरण' (Universal Grammar) की अवधारणा प्रस्तुत की, जो मानता है कि सभी मानव भाषाओं में कुछ सामान्य सिद्धांत होते हैं।
सैपिर-वॉर्फ परिकल्पना (Sapir-Whorf Hypothesis) के अनुसार, भाषा और विचारधारा के बीच गहरा संबंध होता है। बेंजामिन ली वॉर्फ (Benjamin Lee Whorf) और एडवर्ड सैपिर (Edward Sapir) ने यह तर्क दिया कि जिस भाषा में हम बोलते हैं, वह हमारे विचारों और संसार को देखने के तरीके को प्रभावित करती है। बी.एफ. स्किनर (B.F. Skinner) ने भाषा को व्यवहार के रूप में देखा, जो पर्यावरणीय उत्तेजनाओं और प्रतिक्रियाओं के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती है। उन्होंने भाषा अधिग्रहण को एक सीखने की प्रक्रिया के रूप में माना। संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान में भाषा को मानव मस्तिष्क की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है। जॉर्ज लेकॉफ (George Lakoff) और मार्क जॉनसन (Mark Johnson) ने भाषा को 'संकल्पना रूपक' (Conceptual Metaphor) के माध्यम से समझाया, जिसमें भाषा और विचार के बीच संबंध को महत्व दिया गया।
समीक्षात्मक भाषाविज्ञान (Critical Linguistics) और समाजभाषाविज्ञान (Sociolinguistics) में भाषा को समाज, संस्कृति, और राजनीति के संदर्भ में अध्ययन किया जाता है। माइकल हॉलिडे (Michael Halliday) और नॉर्मन फेयरक्लॉ (Norman Fairclough) जैसे विद्वानों ने भाषा की सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यों पर जोर दिया।
भाषाई प्रयोगात्मकता (Pragmatics) में भाषा के उपयोग को संदर्भ, वक्ता की मंशा, और संप्रेषण की स्थिति के आधार पर समझा जाता है। एच.पी. ग्राइस (H.P. Grice) और जॉन ऑस्टिन (John Austin) ने इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
राहुल सांकृत्यायन, जिन्हें 'महापंडित' की उपाधि से सम्मानित किया गया, भारतीय साहित्य, इतिहास, और भाषा विज्ञान के एक प्रमुख विद्वान थे। उनका भाषा चिंतन अत्यधिक महत्वपूर्ण और व्यापक है, जिसमें भारतीय भाषाओं की संरचना, विकास, और सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों पर गहन विचार शामिल हैं। उन्होंने अपने जीवनकाल में 36 भाषाएँ सीखीं और अनेक भाषाओं में साहित्यिक कार्य किए, जिससे उनकी भाषाई विशेषज्ञता का पता चलता है। उनके भाषा चिंतन की विशेषताएँ और उनके दृष्टिकोण को समझना महत्वपूर्ण है, ताकि भाषा के प्रति उनके योगदान का संपूर्ण मूल्यांकन किया जा सके।
राहुल सांकृत्यायन का भाषा चिंतन बहुआयामी और समग्र था। उन्होंने भाषा को न केवल संचार का साधन माना, बल्कि इसे संस्कृति, समाज, और इतिहास का वाहक भी समझा। उनके दृष्टिकोण में भाषा का विकास सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों के साथ जुड़ा हुआ था। उन्होंने भारतीय भाषाओं के इतिहास और उनकी उत्पत्ति पर गहन अध्ययन किया और भाषा विकास की प्रक्रिया को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा। उनके अनुसार, भाषा एक जीवंत संस्था है, जो समय के साथ विकसित होती है और सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक प्रभावों से प्रभावित होती है। राहुल सांकृत्यायन ने भाषा और समाज के बीच गहरे संबंधों को समझा और उसे अपने कार्यों में प्रतिबिंबित किया। उन्होंने भाषा को सामाजिक संरचना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना और यह तर्क दिया कि भाषा समाज के विभिन्न वर्गों के बीच संचार और समझ को बढ़ावा देती है। उनके विचार में, भाषा सामाजिक परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण उपकरण है, जो समाज में समानता, न्याय, और प्रगति को बढ़ावा दे सकती है। उन्होंने यह भी माना कि भाषा का उपयोग सत्ता और शक्ति के उपकरण के रूप में किया जा सकता है, और इसलिए, भाषा की राजनीति को समझना महत्वपूर्ण है।
राहुल सांकृत्यायन का भाषा चिंतन भारतीय भाषाओं के संरक्षण और विकास के प्रति गहरा समर्पण दर्शाता है। उन्होंने भारतीय भाषाओं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा और उनके व्याकरण, संरचना, और विकास पर गहन अध्ययन किया। उनके विचार में, भारतीय भाषाओं का भविष्य उनके संरक्षकों और उपयोगकर्ताओं की प्रतिबद्धता पर निर्भर करता है। उन्होंने भारतीय भाषाओं के साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर को संजोने और उसे भविष्य की पीढ़ियों तक पहुँचाने के महत्व पर बल दिया। उनके अनुसार, भाषा केवल शब्दों का संग्रह नहीं है, बल्कि यह एक संपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर है, जो समाज की आत्मा को प्रतिबिंबित करती है।
राहुल सांकृत्यायन ने अपने भाषा चिंतन में भाषा शिक्षा के महत्व पर भी जोर दिया। उन्होंने भाषा शिक्षा को समाज के सभी वर्गों के लिए सुलभ बनाने की आवश्यकता पर बल दिया और यह तर्क दिया कि भाषा शिक्षा समाज में सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा दे सकती है। उन्होंने यह भी माना कि भाषा शिक्षा व्यक्ति की मानसिक और बौद्धिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उनके अनुसार, भाषा शिक्षा व्यक्ति की सोच, समझ, और विश्लेषण की क्षमता को विकसित करती है और उसे समाज में प्रभावी भूमिका निभाने के लिए सक्षम बनाती है।
राहुल सांकृत्यायन का भाषा चिंतन भाषा की अंतरराष्ट्रीयता को भी स्वीकार करता है। उन्होंने विभिन्न भाषाओं के बीच सांस्कृतिक और साहित्यिक आदान-प्रदान को महत्वपूर्ण माना और यह तर्क दिया कि भाषाओं के बीच पारस्परिक संवाद से समाज और संस्कृति को समृद्ध किया जा सकता है। उनके विचार में, भाषा केवल राष्ट्रीय सीमाओं तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि उसे विश्वभर में फैलाना चाहिए, ताकि विभिन्न संस्कृतियों और समाजों के बीच समझ और सहयोग को बढ़ावा दिया जा सके। उन्होंने यह भी माना कि भाषाओं के बीच संवाद और आदान-प्रदान से नई विचारधाराओं और ज्ञान की उत्पत्ति होती है, जो समाज की प्रगति में सहायक होती है।
राहुल सांकृत्यायन का भाषा चिंतन एक व्यापक और गहन दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, जिसमें भाषा को सामाजिक, सांस्कृतिक, और ऐतिहासिक संदर्भों में देखा गया है। उनके विचार में, भाषा केवल संचार का माध्यम नहीं है, बल्कि यह समाज और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो समाज की सोच, समझ, और व्यवहार को प्रभावित करती है। उनके भाषा चिंतन में भाषा के विकास, संरक्षण, और शिक्षा पर जोर दिया गया है और भाषा की अंतरराष्ट्रीयता को स्वीकार किया गया है। राहुल सांकृत्यायन का भाषा चिंतन आज भी प्रासंगिक है और भाषा विज्ञान, साहित्य, और समाजशास्त्र के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देता है। उनके विचार और दृष्टिकोण भाषा के अध्ययन और समझ में नई दिशाएँ प्रदान करते हैं और भाषा को एक व्यापक और समग्र दृष्टिकोण से देखने के लिए प्रेरित करते हैं।
पाली भाषा, जो बौद्ध धर्म के मूल ग्रंथों की भाषा है, का विकास भारत के प्राचीन समाज में महत्वपूर्ण घटनाओं और विचारधाराओं से जुड़ा हुआ है। सांकृत्यायन ने पाली भाषा के उद्भव और विकास को एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा, जहाँ वे इसे एक समृद्ध सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर के रूप में स्थापित करते हैं। वे पाली भाषा को "धर्म भाषा" के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिसने न केवल बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को प्रचारित किया, बल्कि भारतीय समाज में एक नैतिक और धार्मिक दृष्टिकोण का निर्माण भी किया।
राहुल सांकृत्यायन के अनुसार, पाली भाषा का विकास उस समय हुआ जब भारतीय समाज में धार्मिक और दार्शनिक विचारधाराओं का आदान-प्रदान तेजी से हो रहा था। वे पाली भाषा को "प्राचीन भारत की एक प्रमुख भाषा" मानते हैं, जिसने बौद्ध धर्म के विभिन्न रूपों को न केवल भारत में बल्कि भारत से बाहर भी व्यापक रूप से प्रचारित किया। "पाली साहित्य का इतिहास" में सांकृत्यायन ने इस बात पर जोर दिया कि पाली भाषा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अत्यंत उपयुक्त थी क्योंकि यह सरल और समझने में आसान थी, जिसने इसे आम जनता के बीच लोकप्रिय बनाया। राहुल सांकृत्यायन का पाली भाषा के प्रति चिंतन केवल इसके साहित्यिक और धार्मिक महत्व तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने इसे सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों में भी देखा। वे इस बात पर जोर देते हैं कि पाली भाषा ने भारतीय समाज में एक नई सोच और दृष्टिकोण का निर्माण किया। उनके अनुसार, "पाली भाषा ने न केवल धार्मिक विचारधारा का प्रचार किया, बल्कि समाज में एक नैतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण का भी निर्माण किया।" सांकृत्यायन ने पाली साहित्य को समाज के विभिन्न वर्गों के बीच संचार और संवाद का एक महत्वपूर्ण साधन माना, जिसने समाज को एक नए रूप में ढालने में मदद की। पाली भाषा के साहित्यिक योगदान पर चर्चा करते हुए, राहुल सांकृत्यायन ने इस बात का उल्लेख किया कि पाली साहित्य ने भारतीय साहित्य की धारा को एक नई दिशा दी। "पाली साहित्य का इतिहास" में वे लिखते हैं, "पाली साहित्य ने भारतीय साहित्य को एक नया दृष्टिकोण दिया, जहाँ धार्मिक और नैतिक विचारधाराएँ साहित्यिक रूप में प्रकट हुईं।" उनका मानना था कि पाली साहित्य ने भारतीय साहित्य को धार्मिक और नैतिक मूल्यों के साथ जोड़ा, जिससे यह अधिक गहन और विचारशील बन गया। पाली भाषा के प्रति राहुल सांकृत्यायन का दृष्टिकोण उनके विस्तृत अध्ययन और गहन शोध का परिणाम था। उन्होंने पाली साहित्य के विभिन्न ग्रंथों का अध्ययन किया और उनके माध्यम से भारतीय समाज और संस्कृति के विकास को समझने का प्रयास किया। सांकृत्यायन के अनुसार, "पाली साहित्य का अध्ययन भारतीय समाज और संस्कृति को समझने के लिए अनिवार्य है, क्योंकि यह हमें न केवल बौद्ध धर्म के बारे में जानकारी देता है, बल्कि उस समय के समाज की सोच, दृष्टिकोण और विचारधाराओं का भी प्रतिबिंब है।"
राहुल सांकृत्यायन ने पाली भाषा के महत्व को समझने के लिए इसे एक ऐतिहासिक संदर्भ में देखा। उन्होंने पाली भाषा को उस समय की सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक परिस्थितियों के संदर्भ में समझने का प्रयास किया। उनके अनुसार, "पाली भाषा का विकास उस समय की सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों का परिणाम था, जहाँ एक नई धार्मिक और नैतिक दृष्टिकोण का उदय हो रहा था।" उन्होंने पाली भाषा के विकास को बौद्ध धर्म के प्रसार और उसके सामाजिक प्रभाव के संदर्भ में देखा, जो भारतीय समाज के विकास में महत्वपूर्ण था। पाली भाषा के विकास और प्रसार में राहुल सांकृत्यायन ने बौद्ध धर्म के महत्व को स्वीकार किया, लेकिन वे इस बात पर भी जोर देते हैं कि पाली भाषा का महत्व केवल बौद्ध धर्म तक सीमित नहीं है। वे इसे भारतीय समाज के समग्र विकास के संदर्भ में देखते हैं और इस बात का उल्लेख करते हैं कि पाली भाषा ने समाज को एक नया दृष्टिकोण दिया, जो भारतीय समाज के विकास में महत्वपूर्ण था। उनके अनुसार, "पाली भाषा ने भारतीय समाज को एक नया दृष्टिकोण दिया, जिसने समाज को धार्मिक, नैतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से समृद्ध किया।"
राहुल सांकृत्यायन का पाली भाषा के प्रति चिंतन उनके गहरे ज्ञान और भारतीय समाज के विकास के प्रति उनकी समझ का परिणाम था। उन्होंने पाली भाषा को एक ऐसे माध्यम के रूप में देखा जिसने भारतीय समाज को एक नई दिशा दी। उनके अनुसार, "पाली भाषा ने भारतीय समाज को एक नई दिशा दी, जहाँ धार्मिक और नैतिक मूल्यों का पुनर्निर्माण हुआ और समाज को एक नए रूप में ढालने का प्रयास किया गया।" सांकृत्यायन ने पाली भाषा को भारतीय समाज के विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना, जिसने समाज को एक नई सोच और दृष्टिकोण दिया। राहुल सांकृत्यायन के विचारों में पाली भाषा का महत्व इस बात में निहित है कि यह भाषा भारतीय समाज और संस्कृति के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उनके अनुसार, "पाली भाषा का महत्व इस बात में है कि यह भारतीय समाज के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जहाँ धार्मिक, नैतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण का विकास होता है।" सांकृत्यायन ने पाली भाषा को भारतीय समाज के विकास का एक अभिन्न हिस्सा माना, जिसने समाज को एक नई दिशा और दृष्टिकोण दिया। पाली भाषा के प्रति राहुल सांकृत्यायन का चिंतन न केवल भारतीय साहित्य और संस्कृति को समझने में मदद करता है, बल्कि यह भारतीय समाज के विकास के लिए भी एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान करता है। उनके अनुसार, "पाली भाषा का अध्ययन भारतीय समाज के विकास के लिए अनिवार्य है, क्योंकि यह भाषा हमें उस समय की सामाजिक, धार्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण का ज्ञान प्रदान करती है।" सांकृत्यायन के विचारों में पाली भाषा का महत्व केवल बौद्ध धर्म तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज के विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसने समाज को एक नई दिशा दी।
राहुल सांकृत्यायन हिन्दी भाषा को भारतीय समाज के इतिहास और उसकी सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक मानते थे। उनके अनुसार, "हिन्दी भाषा भारतीय जनता की आत्मा की अभिव्यक्ति है, जो उसकी संस्कृति, धर्म, और समाज के विभिन्न पहलुओं को एक सूत्र में पिरोती है।" सांकृत्यायन हिन्दी भाषा को एक जीवंत भाषा मानते थे, जिसने समय के साथ अपने भीतर अनेक परिवर्तन और नवाचार समाहित किए हैं। यह भाषा न केवल भारतीय समाज की विभिन्न विचारधाराओं और धारणाओं को प्रतिबिंबित करती है, बल्कि उसे एक सांस्कृतिक धरोहर के रूप में भी संरक्षित करती है। "हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास" में सांकृत्यायन ने हिन्दी भाषा के ऐतिहासिक विकास का गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उन्होंने यह दर्शाया कि हिन्दी भाषा ने भारतीय समाज में एकता और अखंडता के संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनके अनुसार, "हिन्दी भाषा ने विभिन्न क्षेत्रों, धर्मों, और संस्कृतियों के बीच एकता स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह भाषा भारतीय समाज के विविध रंगों को एक धागे में पिरोने का कार्य करती है।" सांकृत्यायन का मानना था कि हिन्दी भाषा ने विभिन्न जातीय और सांस्कृतिक समूहों के बीच संवाद स्थापित करने में एक सेतु का काम किया है, जिससे समाज में समरसता और सह-अस्तित्व की भावना का विकास हुआ है। सांकृत्यायन ने हिन्दी भाषा के साहित्यिक विकास पर भी विशेष जोर दिया है। वे इस बात को मानते थे कि हिन्दी साहित्य ने भारतीय समाज को न केवल मनोरंजन और शिक्षा प्रदान की, बल्कि उसे नैतिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शन भी दिया। "हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास" में सांकृत्यायन लिखते हैं, "हिन्दी साहित्य ने समाज के नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का संवर्धन किया है। यह साहित्य समाज को दिशा देने का कार्य करता है और उसे विचारशील बनाता है।" उनके अनुसार, हिन्दी साहित्य ने विभिन्न साहित्यिक विधाओं के माध्यम से समाज में एक नई सोच और दृष्टिकोण का निर्माण किया, जिसने समाज को नैतिकता और धर्म के पथ पर अग्रसर किया। राहुल सांकृत्यायन का हिन्दी भाषा के प्रति दृष्टिकोण केवल साहित्यिक नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक भी था। वे हिन्दी भाषा को समाज के विभिन्न वर्गों के बीच संचार और संवाद का एक महत्वपूर्ण साधन मानते थे। उनके अनुसार, "हिन्दी भाषा ने समाज के विभिन्न वर्गों के बीच संवाद स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह भाषा समाज के वंचित और हाशिए पर खड़े लोगों की आवाज बनी है।" सांकृत्यायन ने हिन्दी भाषा को एक ऐसी भाषा के रूप में देखा, जिसने समाज के विभिन्न वर्गों को एक साथ लाने और उनके बीच संवाद स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। "हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास" में राहुल सांकृत्यायन ने हिन्दी भाषा के सांस्कृतिक महत्व को भी रेखांकित किया है। वे हिन्दी को भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग मानते थे, जो समाज के सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षित और प्रचारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सांकृत्यायन के अनुसार, "हिन्दी भाषा भारतीय संस्कृति की धरोहर है। इस भाषा ने हमारी सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने और उसे आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।" उनके विचार में, हिन्दी भाषा ने भारतीय समाज में सांस्कृतिक पुनर्जागरण का कार्य किया है, जिससे समाज में सांस्कृतिक मूल्यों का पुनर्निर्माण हुआ है। राहुल सांकृत्यायन का हिन्दी भाषा के प्रति चिंतन उनके व्यापक दृष्टिकोण और गहन अध्ययन का परिणाम था। उन्होंने हिन्दी भाषा को केवल साहित्यिक भाषा के रूप में नहीं, बल्कि समाज के विकास और उसके सांस्कृतिक मूल्यों के संवर्धन के साधन के रूप में देखा। "हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास" में सांकृत्यायन ने हिन्दी भाषा के विकास के विभिन्न चरणों का विश्लेषण करते हुए यह दर्शाया है कि कैसे यह भाषा समय के साथ विकसित हुई और समाज के विभिन्न पहलुओं को अपने में समाहित किया। उनके अनुसार, "हिन्दी भाषा ने समय के साथ अपने भीतर अनेक परिवर्तन और नवाचार समाहित किए हैं, जिससे यह भाषा समाज के विकास के साथ-साथ खुद भी विकसित हुई है।" राहुल सांकृत्यायन ने हिन्दी भाषा के भविष्य पर भी विचार किया और इसे समाज के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण माना। वे हिन्दी भाषा को एक ऐसी भाषा मानते थे, जो समाज के विभिन्न क्षेत्रों में संवाद और सहयोग का माध्यम बनेगी। उनके अनुसार, "हिन्दी भाषा समाज के भविष्य का मार्गदर्शन करेगी। यह भाषा विभिन्न क्षेत्रों में संवाद और सहयोग का माध्यम बनेगी और समाज को एक नई दिशा देगी।" सांकृत्यायन ने हिन्दी भाषा के भविष्य को लेकर एक सकारात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने इस भाषा को भारतीय समाज के विकास के लिए आवश्यक माना। सांकृत्यायन के विचारों में हिन्दी भाषा का महत्व इस बात में निहित है कि यह भाषा भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं को एक साथ लाती है और उन्हें एक समग्र रूप में प्रस्तुत करती है। उनके अनुसार, "हिन्दी भाषा भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं को एक साथ लाती है और उन्हें एक समग्र रूप में प्रस्तुत करती है।" सांकृत्यायन का मानना था कि हिन्दी भाषा ने समाज को एकता और अखंडता के सूत्र में बाँधने का कार्य किया है और इसे आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
राहुल सांकृत्यायन के विचारों में हिन्दी भाषा का चिंतन केवल साहित्यिक दृष्टिकोण तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने इसे एक सामाजिक, सांस्कृतिक, और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा। उनके अनुसार, "हिन्दी भाषा का अध्ययन केवल साहित्यिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक, और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से भी करना चाहिए।" सांकृत्यायन ने हिन्दी भाषा को भारतीय समाज के विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना और इसके अध्ययन को समाज के समग्र विकास के लिए आवश्यक माना। "हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास" में राहुल सांकृत्यायन का हिन्दी भाषा के प्रति चिंतन उनके गहरे ज्ञान और अनुभव का प्रतिबिंब है। उन्होंने हिन्दी भाषा को भारतीय समाज के विकास का एक महत्वपूर्ण साधन माना और इसे समाज के विभिन्न पहलुओं के अध्ययन के लिए आवश्यक माना। सांकृत्यायन के अनुसार, "हिन्दी भाषा समाज के विभिन्न पहलुओं के अध्ययन के लिए आवश्यक है। यह भाषा हमें समाज के इतिहास, संस्कृति, और विचारधारा के बारे में जानकारी देती है।" उनके विचारों में हिन्दी भाषा का महत्व केवल उसके साहित्यिक योगदान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भाषा समाज के समग्र विकास के लिए आवश्यक है।
इस प्रकार, राहुल सांकृत्यायन का हिन्दी भाषा के प्रति चिंतन एक व्यापक और गहन दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, जिसमें उन्होंने हिन्दी भाषा को भारतीय समाज और संस्कृति के विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना। उनका मानना था कि हिन्दी भाषा ने समाज को एक नई दिशा दी है और इसे संरक्षित और प्रचारित करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। "हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास" में प्रस्तुत उनके विचार हमें हिन्दी भाषा की गहराई और उसके सांस्कृतिक महत्व को समझने में मदद करते हैं और इसे आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित करने के महत्व को उजागर करते हैं।
हिन्दी और पाली के अतिरिक्त उन्होंने भारतीय भाषाओं के विविध स्वरूप और उनके सांस्कृतिक, सामाजिक, और दार्शनिक महत्व पर भी विचार किया। सांकृत्यायन का मानना था कि भारतीय भाषाएँ केवल संचार के साधन नहीं हैं, बल्कि वे भारत की सांस्कृतिक धरोहर और ज्ञान-विज्ञान की संपदा की संवाहक हैं। वे भाषाओं को एक जीवंत संस्कृति के अभिव्यक्ति के रूप में देखते थे, जो समाज के विभिन्न विचारधाराओं और अनुभवों को व्यक्त करती हैं। सांकृत्यायन ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, तमिल, बांग्ला, उर्दू, और अन्य भारतीय भाषाओं पर भी गहरा अध्ययन किया और उनके साहित्यिक, ऐतिहासिक, और धार्मिक महत्व को समझने का प्रयास किया। उनके अनुसार, भारतीय भाषाओं ने विभिन्न कालखंडों में सामाजिक और धार्मिक आंदोलनों को प्रेरित किया और समाज को नई दिशा दी। उन्होंने संस्कृत को भारतीय ज्ञान और दर्शन का स्रोत माना, जबकि प्राकृत और अपभ्रंश को आम जनता की भाषा के रूप में देखा, जिसने समाज में संवाद और विचारों के आदान-प्रदान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। तमिल भाषा के प्रति उनका विशेष लगाव था, जिसे वे दक्षिण भारतीय संस्कृति और साहित्य की धरोहर के रूप में मानते थे। राहुल सांकृत्यायन ने इस बात पर जोर दिया कि भारतीय भाषाओं का अध्ययन और संरक्षण न केवल भारत की सांस्कृतिक धरोहर को बनाए रखने के लिए आवश्यक है, बल्कि यह देश की एकता और अखंडता के लिए भी महत्वपूर्ण है।
उनकी दृष्टि में, भारतीय भाषाओं का विकास और उनका परस्पर संबंध भारतीय समाज के विविधता में एकता की भावना का प्रतीक है। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि भारतीय भाषाओं के अध्ययन के बिना भारतीय संस्कृति और समाज की समग्र समझ अधूरी है। सांकृत्यायन ने भाषाओं के आपसी संवाद और उनके साहित्यिक आदान-प्रदान को भारतीय भाषाओं के विकास और समृद्धि के लिए अनिवार्य माना। उनके विचार में, भारतीय भाषाओं के संरक्षण और उनके अध्ययन से न केवल भारत की सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित किया जा सकता है, बल्कि यह आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक महत्वपूर्ण शिक्षा का स्रोत बन सकता है। राहुल सांकृत्यायन का भारतीय भाषा चिंतन इस बात की पुष्टि करता है कि भारतीय भाषाएँ समाज और संस्कृति के निर्माण में केंद्रीय भूमिका निभाती हैं और उनके अध्ययन और संरक्षण से भारतीय समाज की समृद्धि और विविधता को समझा जा सकता है। उनके विचारों में भारतीय भाषाओं का महत्व इस बात में निहित है कि वे भारतीय समाज की आत्मा का प्रतिनिधित्व करती हैं और उन्हें संरक्षित और प्रचारित करना भारतीय संस्कृति और सभ्यता के भविष्य के लिए आवश्यक है।
सन्दर्भ ग्रन्थ :
हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी
हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, सं. राहुल सांकृत्यायन, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी
पाली साहित्य का इतिहास, राहुल सांकृत्यायन, हिन्दी समिति, सूचना विभाग, लखनऊ
मेरी जीवन यात्रा, राहुल सांकृत्यायन, राधाकृषण पेपरबैक्स, नई दिल्ली
भाषा और समाज, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली