अखिल बनारसी साँड़ महासभा
यह व्यंग्यात्मक कथा बनारस की बदलती सांस्कृतिक संरचना के बीच साँड़ों की राजनीतिक चेतना और अस्मिता की तलाश को प्रस्तुत करती है। ‘साँड़ समाज पार्टी’ के गठन से लेकर ‘चबूतरों के लोकतंत्र’ तक, यह कहानी 'अखिल बनारसी साँड़ महासभा' बनारस की आत्मा को बचाने वाले उन मूक प्राणियों की मुखर आवाज़ बन जाती है।
व्यंग्य
उज्जवल कुमार सिंह
7/4/2025
बनारस, या कहिए काशी—जिसे ‘मोक्ष की नगरी’ कहा गया, लेकिन अब वह धीरे-धीरे ‘मोबाइल रील्स की राजधानी’ बनती जा रही है—जहाँ हर गली में न केवल संत बैठते हैं, बल्कि साँड़ भी चिल्ल पों करते युवाओं के कैमरे में ‘फ्रेम परफेक्ट’ दिखाई देते हैं। पहले यहाँ साँड़ होते थे—शांत, गभीर, ध्यानस्थ—जैसे किसी योगी ने चुपचाप पृथ्वी पर अवतार लिया हो, जिसे संसार की मोह-माया से कोई लेना-देना न हो। वे बनारसी जीवन-दर्शन के प्रतीक थे—न चलने की जल्दी, न पहुँचने की फिक्र, न ट्रैफिक की परवाह और न सिग्नल की शर्त। लेकिन अब वही साँड़ जब किसी स्कूटर वाले को उछालकर फेसबुक लाइव में अमरत्व प्राप्त करते हैं, तो मालूम होता है कि बनारस भी "कंटेंट क्रिएशन" की गंगा में स्नान कर चुका है। एक ज़माना था जब साँड़ किसी मंदिर के पीछे खड़े होकर भक्तों के प्रसाद की बाट जोहते थे, अब वे ट्रेंडिंग हैशटैग की तलाश में गलियों के बीचोबीच मंच सजाकर खड़े हो जाते हैं—कभी किसी सब्जीवाले की ठेली पलटकर, तो कभी किसी नवविवाहित जोड़े के बीच अचानक प्रवेश कर ‘कौन बनेगा वायरलपती’ में भागीदारी निभाते हैं। हरिहरि—यानि चारा—जिसे कभी श्रद्धा से गायों और साँड़ों के सामने परोसा जाता था, अब प्लास्टिक की थैलियों में लिपटा ऐसा ‘इको-फ्रेंडली ज़हर’ बन चुका है, जिसे खाते ही साँड़ का हाजमा बिगड़ता है और वह ‘सड़कों पर हाजिर रिपोर्टर’ की भूमिका निभाने लगता है। बनारसी लोग जिन्हें कभी सांस्कृतिक प्रतीक मानते थे, अब उन्हें देखकर साइकिल के पैडल और प्रार्थना—दोनों एक साथ तेज़ कर देते हैं। नगर निगम वाले भी अब साँड़ों की समस्या को सुलझाने की बजाय उन्हें ‘लोकल ब्रांड एम्बेसडर’ मान चुके हैं—अधिकारियों के अनुसार, "जो कहीं भी खड़ा हो जाए, ट्रैफिक रुक जाए—उससे बढ़िया रोड सेफ्टी मॉडल और कौन होगा?" बनारस में अब ‘साँड़ दर्शन’ एक नई टूरिस्ट एक्टिविटी है। गाइड लोग बताते हैं—"दाईं ओर देखिए, ये श्री बृहतबांधक साँड़ हैं, इन्होंने पंद्रह स्कूटर और एक मर्सिडीज को नतमस्तक किया है।" हाँ, वो बात और है कि मर्सिडीज वाला अब अदालतों के चक्कर काट रहा है और साँड़ जी को महाकाल सेवा दल का मानद सदस्य बना दिया गया है। जो हरिहरि कभी मंदिरों के आँगन में आहुति के बाद बचा हुआ ‘प्रसाद’ हुआ करता था, वह अब "मल्टीप्लेक्स मोक्ष" में बदल गया है—जहाँ गायें खुद थैला चबाकर पर्यावरणीय चेतना का पाठ पढ़ा रही हैं, और साँड़ प्लास्टिक खाकर "रीसायक्लिंग" की परिभाषा को पुनः गढ़ रहे हैं। गली-गली में ‘ साँड़ हटाओ आंदोलन’ के पोस्टर लग चुके हैं, लेकिन साँड़ अब पोस्टर फाड़ने के लिए भी प्रशिक्षित हैं—जो थैला चबा सकता है, वह पोस्टर क्या चीज़ है? बनारस का साँड़ अब केवल देहधारी पशु नहीं, वह इंस्टाग्राम स्टोरी है, ट्विटर ट्रेंड है, और व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर है, जो कहता है—"जब तक मैं गलियों में हूँ, तब तक लोकतंत्र जीवित है।" इस बदले हुए बनारस में, जब भी कोई व्यक्ति "हर-हर महादेव" बोलता है, कहीं न कहीं कोई साँड़ उसे सुनता है, गर्दन उठाता है, और फिर वही पुराना दार्शनिक भाव लौट आता है—"मुक्ति तो यहीं है, लेकिन पहले तुम्हारे स्कूटर की परीक्षा होगी!" तो बनारस अब भी वही है, बस साँड़ों ने अब ‘दार्शनिक चुप्पी’ छोड़कर ‘सोशल मीडिया सक्रियता’ अपना ली है—वे अब आपको जीवन-मरण से लेकर लोकसभा चुनाव तक के मुद्दों पर सिखा सकते हैं—वो भी केवल खड़े रहकर!
गंगा के घाट पर एक विचित्र लेकिन अत्यंत गंभीर गोष्ठी चल रही थी—साँड़ों की गोष्ठी! हाँ, सही सुना आपने। किसी बाबा की नहीं, किसी संस्था की नहीं, यह गोष्ठी उन महान आत्माओं की थी जो वर्षों से बनारस की सड़कों, गलियों और घाटों को अपने भारी-भरकम शरीर और आत्मविश्वास भरी चुप्पी से पावन करते आए हैं। इस गोष्ठी में सम्मिलित थे— गंगेश्वर, घाट का सबसे वरिष्ठ और अनुभवी साँड़; हरनाथ, जो अपनी मूंछों को ताने सदैव क्रांतिकारी मुद्रा में रहता है; भोला, जिसका स्वभाव नाम से उल्टा है— हर बात पर खीझता रहता है; श्रीनाथ, जो तीर्थयात्री और विदेशी टूरिस्टों की तस्वीरों में अक्सर पृष्ठभूमि में पाए जाते हैं; और अंत में छुटकुआ— नवागंतुक, पर अत्यंत जिज्ञासु।
गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थे गंगेश्वर, जो एक टूटे खंभे के नीचे आधी आँख मूंदे बैठे थे, लेकिन उनके चेहरे पर गहरा चिंतन झलक रहा था।
गंगेश्वर (अपने सींग खुजाते हुए गम्भीर स्वर में बोले): “हमारे जमाने में हरिहरि क्या था! घाट पर बैठते ही भक्त लोग प्रसाद समझकर मूली, सोंठ, गाजर, और कभी-कभी बेसन के लड्डू भी दे देते थे। हर चबाने के साथ लगता था कि परंपरा जीवित है। अब तो चारा प्लास्टिक में लिपटा मिलता है, और भक्त प्लास्टिक के मन से दर्शन करते हैं।”
हरनाथ (थूथन ऊपर उठाकर तिलमिलाते हुए बोले): “अब तो स्थिति यह है कि एक भक्त ने मुझसे सेल्फी लेनी चाही और जब मैंने ध्यान नहीं दिया तो सेल्फी स्टिक से मुझे हड़काने लगा! हरिहरि तो छोड़ो, आत्मसम्मान भी चला गया! एक जमाना था जब हमें रास्ता देने वाले सिर झुकाते थे, अब हॉर्न बजाते हैं!”
भोला (गुस्से में फुफकारते हुए): “साला, अब तो हमसे दूध देने की उम्मीद करने लगे हैं। एक ने तो मजाक में कहा कि ‘गाय नहीं तो तू ही सही’। अरे भाई, हम मवेशी नहीं, परंपरा हैं! हमारी मौजूदगी किसी भी धार्मिक नगर की सांस्कृतिक गारंटी होती है। हम तो गली-गली में जीवन और मृत्यु के बीच की थाती हैं।”
श्रीनाथ (थोड़े चिंतनशील भाव से): “विदेशी टूरिस्ट अब हमें देख कर डरते नहीं, हँसते हैं। वे समझते हैं कि हम प्रशिक्षित कलाकार हैं, कोई सरकार द्वारा रखे गए लाइव एक्सपेरिमेंट का हिस्सा। हमें कैमरे में कैद करने के बाद उन्हें लगता है कि बनारस को समझ लिया।”
छुटकुआ (थोड़ी उत्सुकता और थोड़ा डर लिए): “बड़ों, तो क्या अब हमारी कोई इज्जत नहीं बची? क्या हम केवल ट्रैफिक जाम के प्रतीक रह जाएंगे?”
गंगेश्वर ने गहरी साँस ली और उत्तर दिया: “इज्जत बची है बेटा, लेकिन अब उसे खुद संभालना पड़ता है। ये जो मोबाइल संस्कृति है, इसमें हमारी भूमिका ‘मौन दर्शन’ से ‘वायरल फुटेज’ तक सिमट गई है। अब हमें भी रणनीति बनानी होगी—कम चलना, ज़्यादा खड़ा रहना। तभी लोग हमारी ‘अविचल उपस्थिति’ से डरेंगे और सम्मान भी करेंगे।” और फिर सबने सामूहिक रूप से गर्दन हिलाकर सहमति दी, और अगले आंदोलन की योजना बनाने लगे—“घाट छोड़ो, गली पकड़ो”, ताकि फिर से बनारसी संस्कृति में साँड़ों की सत्ता स्थापित हो सके।
गंगा किनारे हुई उस ऐतिहासिक साँड़-गोष्ठी के बाद से माहौल गर्म था। गंगेश्वर, हरनाथ, भोला, श्रीनाथ और छुटकुआ ने यह तय कर लिया था कि अब चुप नहीं बैठना है। पर तभी एक नई सरकारी योजना ने सबको चौंका दिया—‘हरिहरि पथ योजना’! योजना के तहत अब नगर निगम गौशालाओं को हर रोज़ ताज़ा हरा चारा पहुंचाएगा, गाड़ियों में भर-भरकर। बनारस की गलियाँ हरे चारे की महक से भरने लगीं, और गायें Instagram-रेडी सी चमक उठीं—साफ़-सुथरी, सजी-संवरी, जैसे पंचायत चुनाव में खड़ी हों। घाट पर एक बार फिर सभा हुई, इस बार थोड़ी उदास, थोड़ी बेचैन।
श्रीनाथ (एक गाड़ी में जाते चारे को देखकर गहरी साँस भरते हुए): “हमने भी तो वही घास खाई है, वही गंगा जल पिया है, वही गलियाँ चबाई हैं… फिर अब ये भेदभाव क्यों? हमने गाय से रिश्ता रखा, शादी नहीं की—तो अब हम ‘योग्य लाभार्थी’ नहीं!”
भोला (जैसे ताबीज फाड़ रहा हो): “गायें अब गौशाला में रहकर AC चारा खा रही हैं, और हम? किसी दुकान के बाहर खड़े हो जाएँ तो झाड़ू लेकर दौड़ा दिया जाता है! हमें हरिहरि तब तक नहीं मिलेगा, जब तक हमारे थन नहीं उगते! ये योजना नहीं, सीधा अपमान है!”
छुटकुआ (जो अब TikTok बंद हो जाने के बाद ट्विटर पर सक्रिय हो गया है): “भाइयों, ये अन्याय है! हमें सोशल मीडिया पर उतरना होगा। मैं अभी एक थ्रेड बना रहा हूँ—#SaanḍLivesMatter! हर फोटो के साथ लिखूंगा—'यह साँड़ भूखा है, पर व्यवस्था मौन है।' और हाँ, मंत्री जी को टैग करना मत भूलिए।”
हरनाथ (गंभीर होकर): “हमने लोकतंत्र को बहुत सम्मान दिया है, लेकिन अब हमें भी लोकतंत्र से कुछ चाहिए। अगर गायें राष्ट्रमाता हैं, तो हम राष्ट्रकाका तो कम से कम हैं! सरकार को हमारी भी चिंता करनी चाहिए।”
गंगेश्वर (जो अब भी गहन चिंतन में थे, धीरे से बोले): “अब समय आ गया है कि हम ‘ साँड़ विरोधी नीति’ के विरुद्ध शांतिपूर्ण धरना दें—जहाँ-जहाँ ‘हरिहरि पथ’ की गाड़ियाँ जाएँ, वहाँ-वहाँ हम बैठ जाएँ। सड़क नहीं छोड़ेंगे, क्योंकि यही हमारी अस्मिता का मार्ग है।”
और इसी निर्णय के साथ ‘ साँड़ सत्याग्रह आंदोलन’ की नींव पड़ी। अगले ही दिन शहर भर में साँड़ संगठित होकर चारे की गाड़ियों के आगे बैठ गए—एक साँड़ मुँह में पोस्टर पकड़े हुए: “हम भी भूखे हैं!”, दूसरा अपनी पूँछ से लिख रहा था: “मुझे भी हरिहरि दो!”
छुटकुआ ने तो एक शानदार वीडियो बना दिया जिसमें उसने साँड़ों की पीड़ा को रैप के रूप में प्रस्तुत किया—
“न थन है, न गौशाला,
फिर भी भूख ने मारा,
सरकारी योजना ने हमें निकाला,
अब सड़कों पर संघर्ष हमारा!”
वीडियो वायरल हुआ, मंत्री जी के दफ्तर तक पहुँचा, और आनन-फानन में एक नया विभाग बना—'निराश्रित साँड़ कल्याण प्रकोष्ठ'। योजना के अंतर्गत अब हर मोहल्ले में एक ' साँड़ विश्राम केंद्र' खुलेगा, जहाँ हरिहरि के साथ-साथ सींग मालिश और थूथन पोंछने की सुविधा भी दी जाएगी। गोष्ठी सफल रही। छुटकुआ को ‘डिजिटल आंदोलनकारी’ का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और गंगेश्वर को जीवनपर्यंत ' साँड़-सम्मान पेंशन'। और बनारस के घाट पर फिर चर्चा थी—गायें अब भी गौशाला में हैं, पर साँड़ अब परंपरा नहीं, नीति हैं!
बनारस शहर की आत्मा अगर गंगा है, तो उसकी चेतना चबूतरों पर बसती है। गली-गली, नुक्कड़-नुक्कड़, हर चौमुखा पत्थर, हर बेंच और हर पान की दुकान एक लोकतांत्रिक संसद हुआ करती थी। यहाँ पान की पीक के बीच, मुँह में खैनी दबाए बूढ़े ताऊ से लेकर मसालेदार राजनीति पर चर्चा करते रिक्शेवालों तक—हर कोई किसी ‘विषय पर’ होता था। और जब इंसानों की गोष्ठी खत्म होती, तो साँड़ों की पारी शुरू होती थी—गंगेश्वर, हरनाथ, भोला, श्रीनाथ और छुटकुआ—ये पंच साँड़ों की जनसभा लगाते, लोकतंत्र की ‘जुगाली’ करते। लेकिन अब चबूतरों का स्वरूप बदल रहा था, और साँड़ों के लोकतंत्र पर भी संकट गहराने लगा था।
गंगेश्वर आज सुबह ही एक पुराने चबूतरे से बेदखल किए गए थे। उदास मन से गोष्ठी स्थल पर पहुँचे और गहरी साँस लेकर बोले: “अब चबूतरे पर बैठने भी नहीं देते। कल घाट किनारे वही पुराना चबूतरा देखा, जहाँ कभी हम घंटों बैठते थे, याद है हरनाथ? वहाँ बैठा तो किसी ने कहा—‘हटो! यहाँ रेस्तरां खुलेगा।’ चबूतरों से अब धूप नहीं, डेकोरेशन झाँकता है।”
हरनाथ (गुस्से में थूथन फड़काते हुए): “अब तो पान की जगह ‘पेपरमिंट’ और खैनी की जगह ‘क्विनोआ स्नैक’ बिक रहा है। बड़े-बड़े कैफ़े खुल गए हैं, जिनका नाम भी ऐसा जैसे कोई विदेशी व्रत हो—‘चाय-चरण’, ‘मोक्ष-मोक्का’, ‘काशी ब्रीव्स’। घास की जगह अब ग्रीन टी मिलने लगी है, वो भी तुलसी-मिश्रित ग्लूटन-फ्री!”
छुटकुआ (अपने मोबाइल पर ट्विटर स्क्रॉल करते हुए व्यंग्य करता है): “अब हरिहरि भी इम्पोर्टेड चाहिए! लोकल घास को ‘ग्रामिण’ कहकर ठुकरा रहे हैं। कल मैंने देखा—एक बकरी तक के लिए इटालियन अल्फाल्फा मंगाया गया, और हम? हमें तो देखकर लोग कहते हैं—‘ए जानवर! हट न!’ लोकतंत्र अब ऐप से चलता है—‘बैठक’ की जगह ‘बुकिंग’ होती है।”
भोला (जो हमेशा क्रोधित रहता है): “हमारा चबूतरा अब इंस्टाग्राम के लिए 'विंटेज सेटअप' बन गया है। लोग हमारे ऊपर बैठकर फोटो लेते हैं, लेकिन जब हम बैठते हैं, तो हमें ‘एंटी-सोशल एलिमेंट’ कहा जाता है। ये शहर अब लोकतंत्र नहीं, लोकेशन बन गया है।”
श्रीनाथ (जो घाट पर पर्यटकों के साथ पृष्ठभूमि में रहते-रहते अब दार्शनिक हो गए हैं): “पहले लोग चबूतरे पर बैठकर ज्ञान देते थे, अब मेन्यू कार्ड दिखाते हैं। पहले जो बातें चाय और चबूतरे से बनती थीं, अब वो ‘ज़ोमैटो’ और ‘गूगल रिव्यू’ से तय होती हैं। हमने लोकतंत्र को खट्टी मूली के साथ पचाया था, अब लोग उसे वाई-फाई के साथ निगलना चाहते हैं।”
गंगेश्वर ने फिर गहरी साँस ली और धीरे से बोला: “अब हमें चबूतरे बचाने होंगे। ये सिर्फ पत्थर नहीं, ये स्मृति हैं, संस्कृति हैं। अगर चबूतरे नहीं रहे, तो न गोष्ठी बचेगी, न बनारस।”
यह सुनकर सारे साँड़ गम्भीर हो गए। छुटकुआ ने तुरंत फोन निकाला और नया हैशटैग बना दिया—#SaveChabutraSaveCulture। उस दिन शाम को जब घाट पर एक कैफे की नींव रखी जा रही थी, वहाँ पाँच साँड़ चुपचाप खड़े हो गए—सीधे, स्थिर, और अर्थपूर्ण मौन में। लोकतंत्र फिर जीवित हो गया था—चबूतरे पर नहीं, साँड़ों की खामोशी में।
बनारस की गलियों में अब चुप्पी घुलती जा रही है। जहाँ कभी चबूतरों पर विचारों की चुस्कियाँ और गली-गली में साँड़ों की अविचल उपस्थिति रहती थी, वहाँ अब हरियाली नहीं, कंक्रीट की कराह है। चौड़ी सड़कों ने साँड़ के आरामगाह छीन लिए, मंदिर के बाहर बँधी हुई चरैवति संस्कृति अब ‘नो पार्किंग’ ज़ोन बन चुकी है। हरिहरि, जो कभी श्रद्धा से ठेले पर रखा जाता था, अब प्लास्टिक की चमकदार पैकिंग में आकर दुकानों की शेल्फ़ पर ‘ऑर्गैनिक चारा’ बन चुका है—मूल्य के साथ, मर्यादा के बिना।
इन्हीं बदलती हवाओं के बीच घाट पर फिर एक बैठक हुई। गंगेश्वर, अब वृद्ध और अनुभव के भार से थोड़ा झुक चुके थे, चुपचाप गंगा की ओर देख रहे थे। नज़रों में एक पीड़ा थी, एक ऐसा मौन जो केवल वे ही समझ सकते थे जिन्होंने बनारस को 'परंपरा' की तरह जिया है।
गंगेश्वर (धीरे-धीरे घाट की सीढ़ियों पर लेटते हुए बोले): “काशी तो वही है… लेकिन उसमें साँड़ नहीं दिखते। न वो चबूतरे रहे, न वे गोश्तियों की गूंज, न वो ठेले जिनसे हरिहरि की ख़ुशबू आती थी। अब घाट पर सेल्फी है, श्रद्धा नहीं। यह काशी नहीं, कोई और शहर लगता है।”
हरनाथ (जो अब तक राजनीति से परहेज़ करते थे, आज गुस्से में थे): “हम गाय नहीं हैं, इसलिए हमें पूजा नहीं, परहेज़ की दृष्टि से देखा जा रहा है। ये भेदभाव अब असहनीय हो गया है। गाय अगर राष्ट्रमाता है, तो साँड़ क्या ‘राष्ट्र की बला’ है?”
छुटकुआ, नई पीढ़ी का प्रतिनिधि, जो ट्विटर, टेलीग्राम और तर्क—तीनों का विशेषज्ञ था, उठ खड़ा हुआ।
उसने गर्दन उचकाई, सींगों को थोड़ा सधा और बोला: “अब वक्त आ गया है कि हम केवल प्रतीक न रहकर प्रतिनिधि बनें। हम एक नया दल बना रहे हैं—‘साँड़ समाज पार्टी’ (SSP)। हमारा घोषवाक्य होगा—‘घास दो, वोट लो!’ हमारी माँगें स्पष्ट हैं: हरिहरि सबको, सींगों को सम्मान, और गलियों में स्वतंत्र विचरण का संवैधानिक अधिकार!”
श्रीनाथ (बिना थूथन हिलाए, अनुभव से बोले): “सदियों से हम चुप थे क्योंकि हम प्रतीक्षा कर रहे थे—संस्कारों के ज़िंदा रहने की। लेकिन जब अब गली की जगह गूगल मैप ने ले ली, और हरिहरि को पोषण शास्त्र ने कैद कर लिया—तो हमें बोलना पड़ेगा। हमारी चुप्पी अब हमें अदृश्य कर रही है।”
भोला (जो हमेशा सबमें थोड़ा मसालेदार जोश भरता है): “और अगर हमारी माँगें नहीं मानी गईं, तो हम सीधे विधान भवन में घुसेंगे! जैसे पुराने ज़माने में शादी-ब्याह में घुसते थे—खाते भी थे, नाचते भी थे, और कोई रोकता भी नहीं था। अब सत्ता को भी हमारी उपस्थिति का स्वाद चखाना पड़ेगा!”
छुटकुआ अब पूरी तरह रणनीतिकार बन गया था। उसने घोषणा की: “हम पंचायत स्तर से शुरू करेंगे—हर वार्ड में एक साँड़ प्रतिनिधि, जो यह तय करेगा कि गली की स्थिति, चारे की आपूर्ति और नागरिक सम्मान की स्थिति कैसी है। हम जाति, धर्म या थन के आधार पर नहीं, थूथन की संवेदनशीलता और सींग की स्पष्टता पर काम करेंगे!”
इसके बाद उन्होंने SSP का प्रतीक चिन्ह घोषित किया: एक उभरी हुई सींग, जिसके नीचे हरी घास और उसके ऊपर लिखा—‘लोक और थन के परे, हमारा हक़ घास पर है!’
गंगेश्वर अब भी लेटे थे, लेकिन चेहरे पर एक सुकून की लहर दौड़ गई। “काशी में साँड़ों का फिर से खड़ा होना ही काशी की आत्मा को बचा सकता है,” उन्होंने बुदबुदाकर कहा।
शायद पहली बार उनकी आँखों में विश्वास था कि जो पीढ़ी आ रही है, वह केवल मोबाइल नहीं, मूवमेंट भी समझती है।
और अब जब बनारस की गलियों में कोई कहता है—“देखो साँड़ आ गया!” तो लोग डरकर नहीं, सम्मान से देखते हैं। क्योंकि वह सिर्फ एक जानवर नहीं,एक विचार है—जो सीना ताने खड़ा है। क्योंकि जब भी बनारस को अपनी आत्मा की याद आएगी, वह गंगाजल के साथ साथ एक साँड़ को भी खोजेगा— कहीं किसी चौराहे पर, खामोशी से लेकिन दृढ़ खड़ा हुआ।

